________________
श्रावकर्ता एवं धाडभोक्ता के पालनीय नियम
पितर लोग उसकी स्त्री के मल में एक मास तक निवास करते हैं। वसिष्ठ० (११॥३७) ने यह नियम श्राद्धकर्ता एवं आमंत्रित ब्राह्मण दोनों के लिए प्रयुक्त माना है किन्तु सभी वर्गों की स्त्रियों की ओर निर्देश किया है। मनु (३।१८८) ने भी कहा है कि श्राद्धकर्ता एवं श्राद्धिक (श्राद्ध में भोजन करनेवाला) दोनों को संयमित एवं क्रोधादि भावों से मुक्त रहना चाहिए और (जप के अतिरिक्त) वेद का अध्ययन नहीं करना चाहिए। याज्ञ० (१।२२५) ने संक्षेप में यों कहा है-'उन्हें शरीर, वाणी एवं विचार से यात्रा, यान, श्रम, मैथुन, वेदाध्ययन, झगड़ा नहीं करना चाहिए और न दिन में सोना चाहिए।५२ और देखिए विष्णुधर्मसूत्र (९।२-४)। मिता० (याज्ञ० ११७९) ने पांचवें दिन से सोलहवें दिन के बीच में अपनी पत्नी के साथ संभोग करने के विषय में अपना भिन्न मत दिया है; किन्तु अन्य लेखकों ने (यथा हेमाद्रि, श्रा०, पृ० १००६-७ एवं श्रा० प्र०, पृ० १११) इससे भिन्न मत दिये हैं। कात्यायन के श्राद्धसूत्र ने व्यवस्था दी है कि श्राद्धकर्ता को ब्राह्मणों को आमंत्रित करने से लेकर उनके द्वारा आचमन (श्राद्ध-भोजन के उपरान्त) करने तक शुचि (पवित्र) रहना चाहिए, क्रोध, शीघ्रता एवं प्रमाद से रहित होना चाहिए, सत्य बोलना चाहिए, यात्रा, मैथुन, श्रम, वेदाध्ययन से दूर रहना चाहिए एवं वाणी पर नियंत्रण रखना चाहिए और आमंत्रित ब्राह्मणों को भी ऐसा करना चाहिए। यही बात औशनस में भी है। और देखिए मार्कण्डेय० (२८१३१-३३), अनुशासन० (१२५।२४)* एवं वायु० (७९।६०-६१)। लघु शंख (२९), लघु हारीत (७५) एवं लिखित (६०) ने भी यही बात कही है और आमंत्रित ब्राह्मणों को निम्न बातें न करने को कहा है-'पुनर्भोजन, यात्रा, भार ढोना, वेदाध्ययन, मैथुन, दान देना, दान-ग्रहण और होम।' प्रजापति (९२) ने इन आठों में प्रथम चार के स्थान पर निम्न बातें जोड़ दी हैं-दातुन से दाँत स्वच्छ करना, ताम्बूल, तेल लगाकर स्नान करना एवं उपवास।' अनुशासन० (९०।१२-१३) एवं पद्म० (पाताल खण्ड, १०१।९४-९५) ने न करने योग्य बातों की लम्बी सूची दी है। संक्षेप में, निम्न बातें श्राद्धकर्ता एवं श्राद्ध-भोक्ता के लिए त्याज्य हैंमैथुन, फिर से भोजन, असत्य भाषण, जल्दीबाजी, वेदाध्ययन, भारी काम, जुआ, भार ढोना, दान देना, दान-ग्रहण करना, चोरी, यात्रा, दिन में सोना, झगड़ा। केवल श्राद्ध-कर्ता ही निम्न कार्य नहीं कर सकता-ताम्बूल-चर्वण, बाल
५२. आमन्त्रितो ब्राह्मणो वै योन्यस्मिन् कुरुते क्षणम्। स याति नरकं घोरं सूकरत्वं प्रयाति च॥ कूर्म० (उत्तरार्ष २२।७, श्रा० प्र०, पृ० ११०)। सद्यः श्राद्धी शूद्रातल्पगस्तत्पुरीषे मासं नयति पितॄन् । तस्मातवहब्रह्मचारी स्यात् । गौतम० (१५।२३-२४); हरवत ने 'भाडी' को व्याल्या यों की है-'पाखमनेन भुक्तमिति, अत इनिठनौ।' पाणिनि (५।२।८५) में यों है--'श्रावमनेन भुक्तमिनिठनौ।' इसमें दो रूप आये हैं--(१) 'बारी' एवं (२) 'भाविक । पुनर्भोजनमध्वानं यानमायासमैथुनम् । बाच्छाबभुक्त्वैव सर्वमेतद्विवर्जयेत् ॥ स्वाध्यायं कलहं चंव दिवास्वप्नं च सर्वदा । मत्स्य० (१६।२७-२८), बा० कि० कौ०, पृ. ९८और देखिए पप० (सृष्टि०९।१२३-१२४)।
५३. तबहः शुचिरकोषनोऽत्वरितोऽप्रमत्तः सत्यवादी स्यावष्वमैथुनक्षमस्वाध्यायान्वर्जयेदावाहनादि वाग्यत योपस्पर्शनावामन्त्रिताश्चवम् । श्रा० सू० (कात्यायन)। पुनर्भोजनमध्यानं भाराध्ययनमथुनम् । दानं प्रतिग्रहं होम भारयुक्त्वष्ट वर्जयेत् ॥ लघुशंख (२९, मिता०, यास० १०२४१)। मिलाइए कूर्म० (२।२२।६) एवं भारतीय (पूर्षि, २८॥४)।
५४. भावंवत्त्वा च भुक्त्वा च पुरुषो यः स्त्रियं व्रजेत् । पितरस्तस्य तं मासं तस्मिन्रेतसि शेरते ॥ अनुशासन (१२५।२४)। यही श्लोक मार्कणेय० (२८१३२-३३), अनुशासन० (९०।१२-१३) एवं वसिष्ठ० (१११३७) में भी है। मिता० (याश० ११७९) का कथन है--‘एवं गच्छन् ब्रह्मचार्येव भवति। अतो यत्र ब्रह्मचर्य श्राबादो चोवितं तर गच्छतोऽपि न ब्रह्मचर्यस्खलनदोषोऽस्ति।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org