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अध्याय ९
श्राद्ध कई दृष्टियों से यह विषय बड़ा व्यावहारिक महत्त्व रखता है।
ब्रह्मपुराण ने बात की परिभाषा यों दी है-'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।" मिताक्षरा (याज्ञ० ०२१७) ने श्राद्ध को यों परिमाषित किया है-'पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उनसे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।' कल्पतरु की परिभाषा यों है-'पितरों का उद्देश्य करके (उनके लाभ के लिए) यज्ञिय वस्तु का त्याग एवं ब्राह्मणों द्वारा उसका ग्रहण प्रधान श्राद्धस्वरूप है।' रुद्रधर के श्राद्धविवेक एवं श्राद्धप्रकाश ने मिता० के समान ही कहा है, किन्तु इनमें परिभाषा कुछ उलझ-सी गयी है। याज्ञ० (११२६८=अग्निपुराण १६३।४०-४१) का कथन है कि पितर लोग, यथा-वसु, रुद्र एवं आदित्य, जो श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से सन्तुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को सन्तुष्टि देते हैं। यह वचन एवं मनु (३।२८४) की उक्ति यह स्पष्ट करती है कि मनुष्य के तीन पूर्वज, यथा-पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ-देवों, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनको पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए। कुछ लोगों के मत से श्राद्ध से इन बातों का निर्देश होता है; होम, पिण्डदान एवं ब्राह्मण-तर्पण (ब्राह्मण-संतुष्टि, भोजन आदि से); किन्तु श्राद्ध शब्द का प्रयोग इन तीनों के साथ गौण अर्थ में उपयुक्त समझा जा सकता है।
१. वेशे काले च पात्रे च श्रयया विधिना च यत् । पितृनुद्दिश्य विप्रेन्यो दत्तं पातमुवाहतम् ॥ ब्रह्मपुराण (भावप्रकाश, पृ. ३ एवं ६ पाखकल्पलता, पृ० ३; परा० मा० १०२, १० २९९)। मिता० (याज० १।२१७) में माया है-'श्रावं नामादनीयस्य तत्स्थानीयस्य वा द्रव्यस्य प्रेतोद्देशेन भखया त्यागः।' भावकल्पतरू (पृ० ४) में ऐसा कहा गया है-'एतेन पितृनुद्दिश्य द्रव्यत्यागो ब्राह्मणस्वीकरणपर्यन्तं श्रावस्वरूपं प्रधानम् ।' श्रारक्रियाकौमुदी (पृ. ३-४)का कयन है-'कल्पतरुलक्षणमप्यनुपादेयं संन्यासिनामात्मधा देवधा सनकाविधा चाव्याप्तः। श्रीदत्तात पितृभक्ति में आया है-'अत्र कल्पतरकारः पितृनुद्दिश्य द्रव्यपातो ब्राह्मणस्वीकरणपर्यन्तो हि थायमित्याह तक्युक्तम्।' बीपकलिका (याश० १११२८) ने कल्पतर की बात मानी है। भावविवेक (पृ० १) ने इस प्रकार कहा है-'धाडं नाम वेवबोधितपात्रालम्भमपूर्वकप्रमीतपित्रादिदेवतोदृश्यको द्रव्यत्यागविशेषः ।' भावप्रकाश (१० ४) ने इस प्रकार कहा है--'अत्रापस्तम्बाविसकलवचनपर्यालोचनया प्रमीतमात्रोद्देश्यकान्नत्यागविशेषस्य ब्राह्मणाधिकरणप्रतिपस्यङ्गकस्य भावपदार्थत्वं प्रतीयते। भासविवेक का कयन है कि 'द्रव्यत्याग' वेद के शम्वों द्वारा विहित (वेदबोधित) है और त्यागी हुई वस्तु सुपात्र ब्राह्मण को (पात्रालम्भनपूर्वक) दी जाती है। भावप्रकाश में 'प्रतिपत्ति' का अर्थ है यज्ञ में प्रयुक्त किसी वस्तु की अन्तिम परिणति, जैसा कि 'दर्शपूर्णमास' यज्ञ में 'सह शाखया प्रस्तरं प्रहरति' नामक वाक्य आया है। यहाँ 'शाखाप्रहरण' 'प्रतिपत्तिकर्म' है (जैमिनि० ४।२।१०-१३) न कि अर्थकर्म । इसी प्रकार आहिताग्नि के साथ उसके यज्ञपात्रों का दाह प्रतिपत्तिकर्म है (जहाँ तक यज्ञपात्रों का सम्बन्ध है)।
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