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धर्मशास्त्र का इतिहास
(सेवार), मछली एवं मछली खाकर जीनेवाले जीव सदा जल में ही रहते हैं किन्तु उन्हें कोई शुद्ध नहीं कहेगा । अतः व्यक्ति को सदा अन्तःशुद्धि के लिए प्रयत्न करना चाहिए और आत्मज्ञान के जल में स्नान करना चाहिए, विश्वासरूपी चन्दन लेप का प्रयोग करना चाहिए और वैराग्यरूपी मिट्टी से अपने को शुद्ध रखना चाहिए—यही वास्तविक शौच ( शुचिता) है।" मनु (५११०६) ने घोषित किया है कि शुद्धि के प्रकारों में मानसिक शुद्धि सर्वश्रेष्ठ है । जो धन की ओर से शुद्ध है, अर्थात् जो अन्यायपूर्ण साधनों से दूसरे का धन नहीं हड़पता, वह सचमुच पवित्र है और अपेक्षाकृत उससे भी अधिक शुद्ध है जो जल एवं मिट्टी से शुद्धता प्राप्त करता है। यही बात विष्णु० (२२१८९) में भी पायी जाती है, किन्तु वहाँ अर्थ (घन) के स्थान पर अन रख दिया गया है। त्रिकाण्डमण्डन ( प्रकीर्णक २१ ) में मनु ( ५/१०६ ) वाला श्लोक पाया जाता है। और देखिए अनुशासनपर्व (१०८।१२), जहाँ आचरण, मन, तीर्थ-स्थान एवं सम्यक् दार्शनिक ज्ञान नामक शुद्धियों का वर्णन है; ब्रह्माण्डपुराण (३|१४|६० 'शुचिकामा हि देवा वै) एवं योगसूत्र (२१३२), जहाँ यम-नियमों के अन्तर्गत शौच भी कहा गया है।
शारीरिक शुद्धि अर्थात् बाह्य शुद्धि के, जो मुख प्रक्षालन, स्नान से प्राप्त होती है, विषय में देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय १७ । प्राचीन एवं मध्य काल के लेखकों ने सबके लिए दैनिक स्नान की व्यवस्था दी है, कुछ लोगों के लिए दिन में दो बार स्नान और संन्यासियों के लिए तीन बार स्नान की व्यवस्था है। किन्तु आरम्भिक ईसाइयों में ऐसा व्यवहार नहीं प्रचलित था; सन्त अग्नेस को स्नान न करने से उच्च पद मिला, असीसी के सन्त फ्रांसिस ने धूलि या गन्दगी को पवित्र दरिद्रता का एक प्रमुख चिह्न माना है।
श्री कृत्यों (यथा अग्निष्टोम ) में यजमान को दीक्षा का कठिन अनुशासन मानना पड़ता था, उसके शरीर को अध्वर्यु पुरोहित सात-सात दर्भों के तीन गुच्छों से रगड़कर स्वच्छ करता था। शातातप (स्मृतिच०, १, पृ० १२० ; शुद्धिप्रकाश, पृ० १४७) ने उसके लिए स्नान की व्यवस्था दी है जो मासिक धर्म के आरम्भ होने के उपरान्त पाँचवें दिन से सोलहवें दिन की अवधि में अपनी पत्नी से संभोग करता है, किन्तु इस अवधि के पश्चात् संभोग करने से केवल मूत्र त्याग करने एवं अपानवायु छोड़ने के उपरान्त वाला शुद्धीकरण- नियम पालन करना पड़ता है। सूर्यास्त के उपरान्त वमन करने से भी स्नान करना पड़ता है। इसी प्रकार बाल बनवाने, बुरा स्वप्न देखने, चाण्डाल आदि को छू लेने से भी स्नान करना पड़ता है।
ऋतु
आप० श्र० (११११२) का कहना है कि जो शुद्धि चाहता है उसे पवित्रेष्टि कृत्य करना चाहिए, जो प्रत्येक में वैश्वानरी ( अग्नि वैश्वानर को), व्रातपति ( अग्नि व्रतपति को ) एवं पवित्रेष्टि करता है वह अपने कुल की दस पीढ़ियों को शुद्ध कर देता है।
अब हम द्रव्यशुद्धि का विवेचन करेंगे। किन्तु कुछ सामान्य बातें आरम्भ में ही कह दी जा रही हैं। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।१५।१७-२० ) का कथन है कि छोटे-छोटे बच्चे रजस्वला स्त्री के स्पर्श से अशुद्ध नहीं होते, जब तक उनका अन्नप्राशन नहीं हो गया रहता या एक वर्ष तक या जब तक उन्हें दिशा-ज्ञान नहीं हो जाता, और कुछ लोगों
४१. अवगाह्यापि मलिनो ह्यन्तः शौचविर्वाजितः । शैवला झषका मत्स्याः सस्वा मत्स्योपजीविनः ॥ सदावगाह्य सलिले विशुद्धाः किं द्विजोत्तमाः । तस्मादाभ्यन्तरं शौचं सदा कार्य विधानतः ॥ आत्मज्ञानाम्भसि स्नात्वा सकृदालिप्य भावतः । सुवैराग्यमृदा शुद्धाः शौचमेवं प्रकीर्तितम् ।। लिंगपुराण (८१३४-३६ ) ; भावशुद्धिः परं शौचं प्रमाणं सर्वकर्मसु । अन्यथालिंग कान्ता भावेन दुहितान्यथा अन्यथैव ततः पुत्रं भावयत्यन्यथा पतिम् ॥ पद्म० (भूमिखण्ड, ६६० ८६-८७)।
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