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________________ ११६८ धर्मशास्त्र का इतिहास करने चाहिए, कुंश या पलाश-दलों की आकृति बनानी चाहिए और उसे जलाना चाहिए तथा आशौच मनाकर श्राद्ध आदि करना चाहिए। निष्कर्ष-मेधातिथि (मनु ५।५८) ने आशौचावधियों एवं उनसे प्रभावित लोगों के अन्तर को कई ढंग से समझाया है--(१) जनन एवं मरण के आशौच में बहुत से अन्तर हैं, (२) मरण के आशौच में बहुत से अन्तर हैं, यथा (क) गर्भ (गर्भस्राव, गर्भपात, यथा शंख १५।४ एवं बृहत्पराशर ६, पृ० १८६ में); (ख) जब ७वें या ९वें मास में भ्रूण निकल आये या शिशु मरा ही उत्पन्न हो या उत्पन्न होकर मर जाय (किन्तु दाँत निकलने के पूर्व, देखिए याज्ञ० ३।२३ एवं अत्रि ९५); (ग) दांत निकलने किन्तु चूड़ाकरण के पूर्व या तीन वर्ष के पूर्व (विष्णु० २२१२९ एवं याज्ञ० ३१२३); (घ) चूड़ाकरण या तीन वर्षों के उपरान्त से उपनयन तक (मनु ५।६७); (ङ) उपनयन के उपरान्त (याज्ञ० ३।२३, मनु ५।५९ एवं गौतम० १४।१); (च) उपनयन के उपरान्त मृत्यु होने से आशौच की अवधि ब्राह्मणों के लिए पूर्व समय में वेदाध्ययन तथा श्रोत-कृत्यों पर आधारित थी जिसमें यह था कि ब्राह्मण शिलोञ्छ-वृत्ति पर रहता था (पराशर ३।५, शंख १।५, अत्रि ८३, अग्निपुराण १५८।१०-११); (छ) आशौचावधि जाति पर आधारित थी (गौतम १४।१-४, याज्ञ० ३२२ आदि); (ज) आशौचावधि रक्त-सम्बन्ध की सन्निकटता पर आधारित थी, अर्थात् प्रभावित व्यक्ति सपिण्ड है या समानोदक (गौ० १४११ एवं १८ तथा मनु ५।५९ एवं ६४); (झ) मृत्यु-स्थल की सन्निकटता एवं दूरी पर भी अवधि निर्भर थी (लघ्वाश्वलायन २०१८५ एवं ८९); (ञ) यह महानदी, पर्वत या ३० योजन दूरी के देशान्तर में हुई मृत्यु पर भी आधारित थी (लघ्वाश्वलायन, २०१८७); (ट) सम्बन्धी को सन्देश मिलने के काल के आधार पर भी आशौचावधि का निर्णय होता था; (ठ) पहले आशौच के समाप्त दूसरे आशौच के हो जाने पर भी आशौचावधि का निर्णय निर्भर था। जब कोई रात में जन्म लेता है या मर जाता है या इन घटनाओं के समाचार रात में प्राप्त होते हैं तो यह प्रश्न उठता है कि किस दिन से आशौच की अवधि की गणना की जानी चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि कोई सोमवार की मध्य रात्रिके बाद एक बजे मरे तो क्या सोमवार को दस दिनों की आशौचावधि के अन्तर्गत मानना चाहिए या उसे छोड़ देना चाहिए? इसके उत्तर में दो मत हैं। एक मत यह है कि आधी रात के पूर्व का काल पूर्व दिन का सूचक होता है और उसके पश्चात् आनेवाले दिन का माना जाता है। इस मत के अनुसार उपर्युक्त उदाहरण में सोमवार को दस दिनों के अन्तर्गत नहीं गिना जायगा। दूसरा मत यह है कि रात्रि को तीन भागों में बाँटा जाता है, प्रथम दो भागों में मृत्यु होने से दिन की गणना हो जाती है, किन्तु तीसरे भाग में मृत्यु होने से दस दिनों की गणना आगे के दिन से आरम्भ होती है। इस मत से उपर्युक्त उदाहरण में सोमवार दस दिनों के अन्तर्गत परिगणित हो जायगा। धर्मसिन्धु (पृ० ४३५) के मत से इस विषय में लोकाचार का अनुसरण होना चाहिए। और देखिए मदनपारिजात (पृ. ३९४-३९५)। स्मृतियों में उन सम्बन्धियों की आशौचाबधियों के विषय में भी कतिपय नियम व्यवस्थित हैं, जो उच्च वर्णों १६. रात्री जननमरणे रात्री मरणशाने वारात्रि विभागां कृत्वा प्रथमभागद्वये पूर्वदिनं तृतीयभागे उत्तरदिनमारम्याशौचम् । यद्वार्धरात्रात् प्राक् पूर्वदिनं परतः परदिनम् । अत्र देशाचारादिना व्यवस्था। धर्मसिन्धु (पृ० ४३५)।ये मत पारस्कर एवं काश्यप के श्लोकों पर आधारित हैं ; अर्धरात्रादधस्ताच्चेत्सूतके मृतके तथा। पूर्वमेव दिनं प्राहामध्वं चेदुत्तरेऽहनि ॥ रात्रि कुर्यात् त्रिभागां तु द्वौ भागौ पूर्ववासरः। उत्तरांशः परदिनं जातेषु च मृतेषु च। पारस्कर० (स्मृतिच०, आशौच, पृ० ११८-११९)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002791
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages652
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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