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धर्मशास्त्र का इतिहास
सपिण्डों एवं समानोदकों द्वारा मृत के लिए जो उदकक्रिया या जलवान होता है उसके विषय में मतैक्य नहीं है । आश्व० गृह्य० ने केवल एक बार जल-तर्पण की बात कही है, किन्तु सत्याषाढश्री० (२८/२|७२) आदि ने व्यवस्था दी है कि तिलमिश्रित जल अंजलि द्वारा मृत्यु के दिन मृत का नाम एवं गोत्र बोलकर तीन बार दिया जाता है और ऐसा ही प्रति दिन ग्यारहवें दिन तक किया जाता है।" गौतनधर्मसूत्र ( १४ । ३८ ) एवं वसिष्ठ ० ( ४।१२ ) ने व्यवस्था दी है कि जलदान सपिण्डों द्वारा प्रथम, तीसरे, सातवें एवं नवें दिन दक्षिणाभिमुख होकर किया जाता है, किंतु हरदत्त का कथन है कि सब मिलाकर कुल ७५ अञ्जलियाँ देनी चाहिए (प्रथम दिन ३, तीसरे दिन ९, सातवें दिन ३० एवं नवें दिन ३३), किन्तु उनके देश में परम्परा यह थी कि प्रथम दिन अंजलि द्वारा तीन बार और आगे के दिनों में एक-एक अंजलि अधिक जल दिया जाता था । विष्णुधर्मसूत्र ( १९।७ एवं १३ ), प्रचेता एवं पैठीनसि ( अपराकं पृ० ८७४) ने व्यवस्था दी है कि मृत को जल एवं पिण्ड दस दिनों तक देते रहना चाहिए।" शुद्धिप्रकाश ( पृ० २०२ ) ने गृह्यपरिशिष्ट के कतिपय वचन उद्धृत कर लिखा है कि कुछ के मत से केवल १० अंजलियाँ और कुछ के मत से १०० और कुछ के मत से ५५ अंजलियाँ दी जाती हैं, अतः इस विषय में लोगों को अपनी वैदिक शाखा के अनुसार परम्परा का पालन करना चाहिए । यही बात आश्व० गृह्य० परिशिष्ट ( ३।४ ) ने भी कहा है। गरुड़पुराण ( प्रेतखंड, ५।२२२३) ने भी १०, ५५ या १०० अञ्जलियों की चर्चा की है। कुछ स्मृतियों ने जाति के आधार पर अञ्जलियों की संख्या दी है । प्रचेता (मिता०, याज्ञ० ३।४) के मत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र मृतक के लिए कम से १०, १२, १५ एवं ३० अंजलियाँ दी जानी चाहिए। यम ( श्लोक ९२-९४) ने लिखा है कि नाभि तक पानी में खड़े होकर किस प्रकार जल देना चाहिए और कहा है ( श्लोक ९८ ) कि देवों एवं पितरों को जल में और जिनका उपनयन संस्कार न हुआ हो उनके लिए भूमि में खड़े होकर जल-तर्पण करना चाहिए। देवयाज्ञिक द्वारा उद्धृत एक स्मृति में आया है कि मृत्यु - काल से आगे ६ पिण्ड निम्न रूप से दिये जाने चाहिए; मृत्यु-स्थल पर, घर की देहली पर, चौराहे पर श्मशान के मार्ग पर जहाँ शव-यात्री रुकते हैं, चिता पर तथा अस्थियों को एकत्र करते समय। स्मृतियों में ऐसा भी आया है। कि लगातार दस दिनों तक तैल का दीप जलाना चाहिए, जलपूर्ण मिट्टी का घड़ा भी रखा रहना चाहिए और मृत का नाम-गोत्र कहकर दोपहर के समय एक मुट्ठी भात भूमि पर रखना चाहिए। इसे पाथेय श्राद्ध कहा जाता है, क्योंकि इससे मृत को यमलोक जाने में सहायता मिलती है (धर्मसिन्धु, पृ० ४६३ ) । कुछ निबन्धों के मत से मृत्यु के दिन सपि -
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३४. केशान् प्रकीर्य पांसूनोप्यैकवाससो दक्षिणामुखाः सकृदुन्मज्ज्योत्तीर्य सव्यं जान्वाच्य वासः पीडयित्वोपविशन्त्येवं त्रिस्तत्प्रत्ययं गोत्रनामधेयं तिलमिश्रमुदकं त्रिरुत्सिच्या हरहरञ्जलिनैकोत्तरवृद्धिरंकादशाहात् । सत्याषाढश्रौत० (२८/२०७२ ) । यही बात गौ० पि० सू० (१।४।७) ने भी कही है। जल-तर्पण इस प्रकार होता है - 'काश्यपगोत्र देवदत्त शर्मन्, एतत्ते उदकम्' या 'काश्यपगोत्राय देवदत्तशर्मणे प्रेतायैतत्तिलोदकं ददामि ( हरवत्त) या 'देववत्तनामा काश्यपगोत्रः प्रेतस्तृप्यतु' (मिता०, याज्ञ० ३।५ ) । और देखिए गोभिलस्मृति ( ३।३६-३७, अपरार्क पृ० ८७४ एवं परा० मा० ११२, पृ० २८७ ) ।
३५. दिने दिनेऽञ्जलीन् पूर्णान् प्रदद्यात्प्रेतकारणात् । तावद् वृद्धिश्च कर्तव्या यावत्पिण्डः समाप्यते ॥ प्रचेता (मिता०, याज्ञ० ३ | ३ ) ; 'यावदाशौचं तावत्प्रेतस्योदकं पिण्डं च दद्युः ।' वि० घ० सू० ( १९।१३) । यदि एक दिन केवल एक ही अंजलि जल दिया जाय तो दस दिनों में केवल दस अंजलियाँ होंगी, यदि प्रति दिन १० अंजलियाँ दी जायें तो १००, किन्तु यदि प्रथम दिन एक अंजलि और उसके उपरान्त प्रति दिन एक अंजलि बढ़ाते जायें तो कुल मिलाकर ५५ अंजलियाँ होंगी ।
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