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देशों में एक-सी ही हैं। किसी भी स्थान विशेष में आरम्भकालिक आचार पूर्ण लाभप्रद रहते हैं, फिर आगे चल कर सम्प्रदायों में उनके दुरुपयोग एवं विकृतियाँ समान रूप से स्थान ग्रहण कर लेती हैं। चाहे कोई देश विशेष हों या समाज, वे किसी न किसी रूप में जाति-प्रथा या उससे भिन्न प्रथा से आबद्ध रहते आये हैं।
संस्कृत ग्रन्थों से लिये गये उद्धरणों के सम्बन्ध में दो शब्द कह देना आवश्यक है। जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते, उनके लिए ये उद्धरण इस पुस्तक में दिये गये तर्कों की भावनाओं को समझने में एक सीमा तक सहायक होंगे। इसके अतिरिक्त, भारतवर्ष में इन उद्धरणों के लिएअपेक्षित पुस्तकों को सुलभ करने वाले पुस्तकालयों या साधनों का भी अभाव है। उपर्युक्त करणों से सहस्त्रों उद्धरण पादटिप्पणियों में उल्लिखित हुए हैं। अधिकांश उद्धरण प्रकाशित पुस्तकों से लिये गये हैं एवं बहुत थोड़े-से अवतरण पाण्डुलिपियों और ताम्र-लेखों से उद्धृत हैं। शिलालेखों, ताम्रपत्रों के अभिलेखों के अवतरणों के सम्बन्ध में भी उसी प्रकार का संकेत अभिप्रेत हैं। इन तथ्यों से एक बात और प्रमाणित होती है कि धर्मशास्त्र में विहित विधियों से जो कई हजार वर्षों से जनसमुदाय द्वारा आचरित हुई है तथा शासकों द्वारा विधि के रूप में स्वीकृत हुई है, यह निश्चित होता है कि ऐसे नियम पंडितम्मन्य विद्वानों या कल्पना-शास्त्रियों द्वारा संकलित काल्पनिक नियम मात्र नहीं रहे हैं; वे व्यवहार्य रहे हैं।
जिन पुस्तकों के उद्धरण मुझे लगातार देने पड़े हैं और जिनसे मैं पर्याप्त लाभान्वित हुआ हूँ, उनमें से कुछ ग्रंथों का उल्लेख आवश्यक है। यथा-डम फील्ड की 'वैदिक अनुक्रमणिका', प्रोफेसर मैकडानल और कीथ की 'वैदिक अनुक्रमणिकाएँ" और मैक्समूलर द्वारा सम्पादित 'प्राच्य धर्म पुस्तकें।
इसके अतिरिक्त मैं असाधारण विद्वान डा० जाली को स्मरण करता हूँ जिनकी पुस्तक को मैंने अपने सामने आदर्श के रूप में रखा था। मैंने निम्नलिखित प्रमुख पंडितों की कृतियों से भी बहुमूल्य सहायता प्राप्त की है, जो इस क्षेत्र में मुझ से पहले कार्य कर चुके हैं । जैसे डा० बुलर, राव साहब बी० एन० माण्डलीक, प्रोफेसर हापकिन्स्, श्री एम० एम० चक्रवर्ती तथा श्री० के० पी० जायसवाल । मैं 'वाद' के परमहंस केवलानन्द स्वामी के सतत साहाह य और निर्देश (विशेषतः श्रौत भाग) के लिए, पूना के चिन्तामणि दातार द्वारा दर्श पौर्णमास के परामर्श और श्रौत के अन्य अध्यायों के प्रति सतर्क करने के लिए, श्री केशव लक्ष्मण ओगेल द्वारा अनुक्रमणिका भाग पर कार्य करने के लिए और तर्कतीर्थ रघुनाथ शास्त्री कोकजे द्वारा सम्पूर्ण पुस्तक को पढ़कर सुझाव और संशोधन देने के लिए असाधारण आभार मानता हूँ। मैं इंडिया आफिस पुस्तकालय (लंदन) के अधिकारियों का और डा० एस० के० वेल्वल्कर, महामहोपाध्याय प्रोफेसर कुप्पुस्वामी शास्त्री, प्रोफेसर रंगस्वामो आयंगर, प्रोफेसर पी० पी०एन० शास्त्री, डा० भवतोष भट्टाचार्य, डा० आल्सडोर्फ, प्रोफेसर एच० डी० बेलणकर (विल्सन कालेज बम्बई) का बहुत ही कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने मुझे अपने अधिकार में सुरक्षित संस्कृत की पाण्डुलिपियों के बहुमूल्य संकलनों के अवलोकन की हर संभव सुविधाएँ प्रदान की। विभिन्न प्रकार के निर्देशन में सहायता के लिए मैं अपने मित्र-समुदाय तथा डा० बी० जी० पराओ, डा० एस० के० दे, श्री पी० के० गोडु और श्री जी० एन० वैद्य का आभार मानता हूँ । हर प्रकार की सहायता के बावजूद इस पुस्तक में होनेवाली न्यूनताओं, च्युतियों और उपेक्षाओं से मैं पूर्ण परिचित हूँ। अतः इन सब कमियों के प्रति कृपालु होने के लिए मैं विद्वानों से प्रार्थना करता हूँ।*
- पाण्डुरंग वामन काणे * मूल ग्रन्थ के प्रथम तथा द्वितीय खण्ड के प्राक्कथनों से संकलित
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