SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 452
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय ३५ आधुनिक भारतीय व्यवहार - शास्त्र में आचार यद्यपि 'आँग्ल भारतीय' व्यवहार- शास्त्र ( एंग्लो-इण्डियन लॉ) में पाये जानेवाले आचारों का विस्तृत विवेचन इस पुस्तक के क्षेत्र के बाहर है, तथापि आधुनिक काल के आचारों के विषय में कुछ शब्द इस अध्याय में लिख देना विषयान्तर न होगा । जब अँग्रेजों ने भारत में राजनीतिक सत्ता स्थापित करना आरम्भ कर दिया, उन्हें भारतीयों के आचारों की महत्ता स्वीकार करनी पड़ी। इस विषय में सर्वप्रथम सन् १७५३ ई० में बम्बई में स्थापित मेयर के न्यायालय का चार्टर ( शासनपत्र ) प्रसिद्ध है, जिसमें अप्रत्यक्ष रूप से मनु ( ७।२०३ ) एवं याज्ञ० ( १।३४३ ) के सिद्धान्त प्रविष्ट हो गये और इस प्रकार हठात भारतीयों के व्यवहारों एवं आचारों को ब्रिटिश राजकीय पत्रों में प्रतिष्ठा मिल गयी ।' ब्रिटिश पार्लियामेन्ट एवं भारतीय विधानसभाओं ने कालान्तर में शासन एवं न्याय सम्बन्धी व्यवहार (कानून) में इन आचारों को महत्ता प्रदान की है । देखिये इस विषय में पाद-टिप्पणी । इस तरह क्रमशः नये-नये कानूनों द्वारा उत्तराधिकार, रिक्थ, विवाह, जाति, धार्मिक संस्थाओं आदि के विषय में प्राचीन आचार-व्यवहार सम्बन्धी नियमों को प्रतिष्ठा मिलती चली गयी । विवादों की चर्चाओं के सिलसिले में बहुत-से आधारभूत तत्त्व प्रकट होते चले गये । प्रश्न यह उठा कि किसी नियम के प्रतिपादन में कितने पुराने प्रमाणों को स्थान दिया जाय। 'मिताक्षरा' (याश० २।२७) ने स्मार्तकाल ( जितने पुराने काल तक स्मरण की पहुँच हो सके ) को, किसी भोग के सम्बन्ध में एक सौ वर्ष की अवधि का माना है, किन्तु कात्यायन एवं व्यास ने केवल साठ वर्ष की सीमा बाँध दी है। किसी आचार के प्रचलन के प्रमाण के लिए २०, ३०, ८० या ६० वर्ष भी न्यायालयों द्वारा स्वीकृत हुए हैं और यह कहा गया है कि यदि प्रमाण के विरोध में (O. C. J.) 172, 183. --Vide Lopes v. Lopes 5. Bom. H. C. R. २––37, Geo. III Chap 142 ( 1796 AD ), Sec. 13, Bombay Regulation IV of 1827. Sec. 26, The Government of India Act of 1915 (5 & 6 Geo. V Chap. 61, Sec. 112), Government of India Act 1935 (25 Geo. V Chap. 2, Sec. 223), the Madras Civil Courts Act (III of 1873, Sec. 16), the Bengal, North-West Provinces and Assam Civil Courts Act (XII of 1887 Sec. 37 ), Central Provinces Laws Act (XX of 1875, Sec. 5 ), the Oudh Laws Act (XVIII of 1876, Sec. 3), the Bengal Laws Act (XVI of 1872, Sec. 5 ) ३. मुख्या पैतामही भुक्तिः पैतुकी चापि संमता। त्रिभिरेतं रविच्छिन्ना स्थिरा षष्ट्यब्दिको मता ।। कात्या० ( अपरार्क पृ० ६३६) । वर्षाणि विशत भुक्ता स्वामिनाव्याहता सती । भुक्तिः सा पौरुषी भूमेद्विगुणा तु द्विपौरुषी । त्रिपौरखीच त्रिगुणा न ततोन्वेष्य आगमः ॥ व्यास (स्मृतिचन्द्रिका, अ० २, पृ० ७५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy