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कलिवयों की तालिका
(२१) चोरी के अतिरिक्त अन्य महापातकों के लिए गुप्त प्रायश्चित्त कलिवयं है । हारीत (परा० माध. २, भाग २, पृ० १५३) ने उस ब्राह्मण के लिए गुप्त प्रायश्चित्त की व्यवस्थाकी है जिसने धर्मशास्त्र का पंडित होते हुए भी कोई ऐसा पाप किया है जिसे कोई अन्य नहीं जानता । गौतम (अ० २४) ने ब्रह्महत्या, सुरापान, व्यभिचार और सोने की चोरी जैसे महापातकों के लिए गुप्त (छिपे तौर से किये जानेवाले, अर्थात् जिन्हें कोई अन्य न जाने ) प्रायश्चित्तों की व्यवस्था की है । वसिष्ट (अ०२५) ने भी इसका समर्थन किया है और कहा है (२५।२) कि केवल वे ही लोग गुप्त प्रायश्चित्तों के अधिकारी है जो वैदिक अग्निहोत्र करते हैं, अनुशासित और बृद्ध या विद्वान (श्रुति-धर्म, स्मृति-धर्म आदि में विज्ञ) हैं । विष्णु ध० सू० (५५) ने गुप्त प्रायश्चित्तों का विवेचन किया है । पराशर (६६१) ने सामान्य नियम दिया है कि व्यक्ति को अपने अपराध की धोषणा कर देनी चाहिये । कलिवयं-संबंधी उक्तियों में ऐसा आया है कि महापातकों में से केवल चोरी के लिए गुप्त प्रायश्चित्त करना चाहिये, यद्यपि प्रारंभिक युगों में अन्य महापातकों के लिए भी ऐसी व्यवस्था थी । 'निर्णयसिन्धु' के मतानुसार गुप्त प्रायश्चित्त की अनुमति केवल ब्राह्मणों को ही मिली है। 'धर्मसिन्धु' का कथन है कि कलियुग में ब्रह्माहत्या एवं अन्य महापातकों के कारण प्रायश्चित करने से व्यक्ति नरक में गिरने से बच नहीं सकता,किन्तु सामाजिक सम्बन्धों के लिए वह योग्य सिद्ध हो जाता है। परन्तु सोने की चोरी जैसे महापातक का प्रायश्चित्त करने से व्यक्ति नरक में गिरने से भी बच जाता है. और सामाजिक सम्बन्धों के योग्य भी हो जाता है। कलिवर्ण्यविनिर्णय के मतानुसार कलियुग में सभी गुप्त प्रायश्चित्त निषिद्ध अथवा बजित हैं।
(२२) वैदिक मन्त्रों के साथ वर (दूल्हे),अतिथि एवं पितरों के सम्मान में पशूपाकरण (पशु-बलि का कार्य) कलिवर्ण्य है। प्राचीन काल में कई अवसरों पर पुरोहित (यज्ञ के समय या स्वागतार्थ), राजा, स्नातक, आचार्य, श्वशुर, चाचा, मामा एवं वर (दूल्हे) को मधुपर्क दिया जाता था। आरम्भ में किसी सम्मानित अतिथि के लिए गाय या बैल का वध किया जाता था, किन्तु कालान्तर में जब गाय अति पवित्र मानी जाने लगो तो किसी अन्य पशु का मांस दिया जाने लगा. जब मांस-प्रयोग भी निन्द्य कर्म समझा जाने लगा तो पायस एवं अन्य खाने योग्य फल-मल की व्यवस्था हो गयी। देखिये मांस-भोजन के विषय में इस ग्रन्थ का खंड २, अध्याय २२। याज्ञ० (१।२५८-२५६) ने श्राद में पितरों के लिए भांति-भाँति के पशुओं के मांसदान की अति प्रशसा की है। १७ वीं शताब्दी के नैयायिक विश्वनाथ ने बाहाणों द्वारा यज्ञों, श्राद्ध, मधुपर्क, जीवन-भय में एवं किसी अन्य ब्राह्मण द्वारा आज्ञापित होने पर मांस-भोजन का समर्थन किया है और उन लोगों की भर्त्सना की है जो बौद्ध सिद्धान्तों के अनुयायियों के समान मांस-भोजन को जित मानते है । विश्वनाथ ने धन के लोभ से ब्रह्महत्या करनेवालों, मातुलकन्या या अन्य मातृसपिण्डों से विवाह करनेवालों के लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है, यद्यपि ये दोनों कार्य कलिवर्ण्य ठहराये गये हैं।
(२३) असवर्ण स्त्रियों के साथ व्यभिचार करने के उपरान्त प्रायश्चित करने पर भी जातिसंसर्ग कलिवयं है। अपनी जाति या उच्च जाति या नीच जाति की नारी के साथ व्यभिचार करने पर प्रायश्चित्त के विषय में मतैक्य नहीं है। प्राचीन सूत्र इस विषय के अपराधियों के प्रति अति कठोर हैं, किन्तु स्मृतियों ने कुछ ढिलाई प्रर्दाशत की है। गौतम (२३।१४-१५) एवं वसिष्ठ (२१।१-३) ने नीच जाति के पुरुष को जब वह किसी उच्च जाति की नारी से व्यभिचार करता है, कई प्रकार से मार डालने की व्यवस्था दी है। यदि कोई ब्राह्मण किसी चांडाल या श्वपाक नारी से सम्भोग करे तो उसे पराशर (१०।५-७) के मत से तीन दिनों का अनशन, शिखा के साथ शिर-मुण्डन, तीन प्राजापत्य तथा ब्रह्मकूर्च करने पड़ते हैं, ब्राह्मण भोजन कराना पड़ता है, लगातार गायत्री जप करना पड़ता है, दो गौ दान में देनी पड़ती हैं और तब कहीं वह शुद्ध हो पाता है। किन्तु इसी दुष्कर्म के लिए शूद्र को एक प्राजापत्य एवं दो गायों का दान करना पड़ता है । यदि कोई नीच जाति का व्यक्ति किसी उच्च जाति की नारी से सम्भोग करे (यथा शूद्र ब्राह्मण नारी से) तो संवर्त (श्लोक १६६-१६७) ने एक महीने तक केवल गोमूत्र एवं यावक (जौ की लप्सी) पर
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