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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास यदि कोई व्यक्ति जान-बूझकर ब्रह्महत्या करता है तो उसके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है। उन्होंने (१११६०) सुरापान के पापमोचन के लिए खौलती सुरा पीकर मर जाने की व्यवस्था दी है, और कहा है (११।१४६) कि यदि कोई जान बूझकर सुरापान करे तो उसके लिए मृत्यु के अतिरिक्त कोई दूसरा प्रायश्चित्त नहीं है । 'विष्णुधर्मसूत्र' (अ० ३४) का कथन है कि माता, पुत्री या पुत्र-वधू के साथ व्यभिचार अतिपातक (महापातक) है, ऐसे पापियों के लिए अग्निप्रवेश से बड़ा कोई अन्य प्रायश्चित नहीं है। और देखिये गौतम (२११७)। कुछ स्मृतियों ने ऐसे महान अपराधों के लिए प्रपात से गिरकर मरने या अग्निप्रवेश के अतिरिक्त अन्य किसी प्रायश्चित की व्यवस्था नहीं दी है। किन्तु आगे चलकर ब्राह्मण का शरीर क्रमशः अधिक पवित्र माना जाने लगा, अतः ब्राह्मण पापी के लिए मृत्यु का दण्ड प्रायश्चित्त रूप में वर्जनीय समझा गया, चाहे उसका पाप कितना भी गम्भीर क्यों न हो। किन्तु यह छूट क्षत्रियों आदि के लिए नहीं थी। (२०) पतित की संगति (सहाचरण) से प्राप्त अपवित्रता या पाप कलिवर्ण्य है । मनु (११।१८० = शान्ति. १६५।३७ = बौधायन ध० सू० १।८८)तथा 'विष्णुधर्मसूत्र' (३५२-५) ने कहा है कि वह व्यक्ति पतित हो जाता है जो किसी महापातकी के संसर्ग में एक वर्ष तक रहता है, उसके साथ एक ही आसन या वाहन पर बैठता है या उसके साथ बैठकर एक ही पंक्ति में खाता है । किन्तु वह व्यक्ति उसी क्षण पतित हो जाता है जो किसी पापी का पुरोहित बनता है या उसे गायत्री या वेद पढ़ाने के लिए उसका उपनयन-संस्कार करता है या उसके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करता है । पराशर (१।२५-२६)का कहना है कि कृतयुग में पतित से बोलने, त्रेता में उसको देखने, द्वापर में पतित के घर में बना भोजन खाने से व्यक्ति पतित हो जाता है, किन्तु कलियुग में अपराध-कर्म करने से व्यक्ति पतित होता है। कृत युग में वह जनपद,जहां पतित निवास करता है,छोड़ देना पड़ता है और त्रेता में पतित के ग्राम को, द्वापर में उसके केवल कुछ को एवं कलि में केवल पतित को छोड़ देना पड़ता है। पराशर (१२७६) ने निस्सन्देह यह कहा कि 'बैठने या साथ सोने या एक ही वाहन या आसन का प्रयोग करने, उससे बोलने या एक ही पंक्ति में पतित के साथ खाने से पाप उसी प्रकार अपने में आ जाते हैं जैसे जल में तैल की एक बूंद फैल जाती है। किन्तु इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि पतित का संसर्ग बरा है, इससे यह न समझना चाहिये कि पतित के संसर्ग से कोई व्यक्ति उसी समय अपवित्र अथवा पापी हो उठता है । 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३।२६१) ने देवल एवं वृद्ध-बृहस्पति को उद्धृत कर संसर्ग की उत्पत्ति निम्न नौ प्रकारों में बाँटी है, यथा--संलाप से, स्पर्श से, निःश्वास से (एक ही कक्ष में रहने से), सहयान से, सहआसन से, सहाशन (एक पंक्ति में साथ बैठकर खाने) से याजन (पुरोहिती) से या वेदाध्ययन से या वैवाहिक-सम्बन्ध स्थापन से ।१६ परा० मा० का कथन है कि पराशर ने कलि में कई प्रकार के संसर्गों में पातित्य नहीं माना है, अतः उन्होंने संसर्ग के लिए कोई प्रायश्चित्त निर्धारित नहीं किया। यही बात निर्णयसिन्धु एवं भट्टोजि दीक्षित ने भी कही है। और देखिये उद्वाहतत्त्व। अधिकांश में सभी निबन्ध इस विषय में एकमत हैं कि मनु एवं बौधायन द्वारा प्रतिपादित संसर्ग-सम्बन्धी कठिन नियम कालान्तर में संशोधित हो गये, क्योंकि कलियुग में पापी से बातचीत करना या उसे देखना पाप-कर्म नहीं समझा गया। १६. संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन् । याजनाध्यापनाद्यौनान्न तु यानासनाशनात् ॥ मनु (११।१८०); बौ० ध० सू० (२।१।८८) । त्यजेद् देशं कृतयुगे त्रेतायो ग्राम पुत्सृजेत् । द्वापरे कुलमेक तु कर्तारं च कलौ युगे ॥ कृते सम्भाषणात्पापं त्रेतायां चैव दर्शनात् । द्वापरे चान्नमादाय कलौ पतति कर्मणा । पराशर (१।२५-२६)। आसनाच्छयनाद्यानात्सम्भाषात् सहभोजनात् । संक्रामन्ति हि पापानि तैलबिन्दुरिवाम्मसि ॥ पराशर (१२१७६) । संलापस्पर्शनिःश्वाससहयानासनाशनात् । याजनाध्यापनाद्यौनात्पापं संक्रमते नृणाम् ।। देवल (मिता, याज्ञः ३।२६१; अपराक पृ०१०८७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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