________________
भारतयुद्ध-सम्बन्धी ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति की मीमांसा
(ऋग्वेद के) 'वेदांगज्योतिष' के नियमों से मेल खाती थी। इस विषय में मतैक्य नहीं है कि उस समय मासों का अन्त अमावस्या से होता था या पूर्णिमा से, अर्थात् वे अमान्त थे अथवा पूर्णिमान्त ।१५वैदिककाल में भी मास पूर्णिमान्त होता था, इस विषय में कोई विवाद नहीं है। उदाहरणार्थ, तै० सं० के मत से पूर्वाफाल्गुनी वर्ष की अन्तिम रात्रि है
और उत्तराफाल्गुनी उसका मुख (अर्थात् आरम्भ) । इसी प्रकार ते० सं० (७।४।८।२) ने घोषित किया है कि चिता पूर्णमासी वाले वर्ष का मुख है, किन्तु शांखायन ब्राह्मण (४।४) का कहना है कि फाल्गुनी पूर्णमासी वर्ष का मुख है। महाभारत के लेखक, या लेखकों ने किसी भयानक घटना के अत्यधिक अशुभ सूचक तत्त्वों को एक ही स्थान पर एकत्र कर दिया है और यह नहीं सोचा है कि वे इस प्रकार अपनी विशेषताओं के कारण एक स्थान पर नहीं रखे जा सकते (उद्योगपर्व १४३।५-२६ एवं भीष्मपर्व २।१६।३३)। उदाहरणार्थ, अरुन्धती वसिष्ठ के पास गयी (भीष्म, २।३१), घोड़ी ने गाय के बछड़े को जन्म दिया, कुतिया ने शृगाल जन्मा (भीष्म० ३।६) तथा देवताओं की प्रतिमाएं काँप उठीं, हंस पड़ी एवं रक्त उगलने लगीं (भीष्म० २।२६ जिसकी तुलना बृहत्संहिता ४५।८ से एवं गर्ग के श्लोकों से की जा सकती है) । ऐसा कई बार कहा गया है कि चन्द्र और सूर्य का ग्रहण अनुचित तिथि (अपर्वणि) में हुआ है या दोनों राहु से ग्रसित हुए हैं (भीष्म० ३।२८ एवं ३२।३३ तथा आश्वमेधिक ७७।१५)। इन्हीं श्लोकों में आया है कि सूर्य और चन्द्र के ग्रहण एक ही दिन हुए और एक ही मास के १३वें दिन हुए । इन सब बातों को लेकर विद्वानों की गणना में बहुत मतभेद हो गया है, किन्तु हम इन विस्तारों के चक्कर में न पड़ेंगे । यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि कुसमय में होने वाले ग्रहणों से विपत्तियां घिर आती हैं। वराहमिहिर (बृहत्संहिता ५।२६, ६७-६८) का कहना है कि यदि चन्द्रग्रहण सूर्यग्रहण के पहले या उपरान्त एक ही पक्ष में प्रकट होता है तो भयंकर फल दीख पड़ते हैं।
जव कृष्ण ने कौरवों से शान्ति स्थापना की चर्चा आरम्भ कर दी तब से जो ज्योतिष संबन्धी आंकड़े हमारे सामने उपस्थित होते हैं उनमें कुछ महत्त्वपूर्ण आँकड़ों की चर्चा यहां की जा रही है। उद्योगपर्व (८३॥६-७) में आया है कि कृष्ण ने शान्तिदूतता का कार्य शरद ऋतु के अन्त में और जाड़े के आगमन पर जब कि चंद्र रेवती नक्षत्र में था या मैत्र मूहूर्त में था, तब कार्तिक मास में आरम्भ किया (कौमुदे मासि) ।६ आजकल आश्विन और कार्तिक शरद् ऋतु के द्योतक हैं तया मार्गशीर्ष और पौष हेमन्त के । यह श्लोक एक कठिनाई उत्पन्न करता है । कार्तिक की पूर्णिमा को चन्द्र कृत्तिका नक्षत्र में और तीन दिन पहले अर्थात् कार्तिक शुक्ल द्वादशी के दिन वह रेवती नक्षत्र में होता है। यदि हम इसे 'शरदन्ते' शब्द के साथ ले जायँ तो मास पूर्णिमान्त हो जाता है; किन्तु दूसरे अर्थ में (यदि मास अमान्त हो)यह
१५. कनिष्ककाल के खरोष्ठी के अभिलेखों से पता चलता है कि उत्तर-पश्चिमी भारत में उन दिनों माख पूर्णिमाम्त थे (एपि० इन्०, जिल्द १८, पृ० २६६ एवं वही, जिल्द १६, पृ०१०)। अपराक (पृ० ४२३) ने ब्रह्मपुराण से 'अश्वयुक् कृष्णपक्षे तु श्राद्धं कार्य दिने दिने' उद्धृत कर कहा है कि भाद्रपद कृष्णपक्ष को इस श्लोक में आश्विन का कृष्ण पक्ष कहा गया है । भविष्यपुराण (उत्तरपर्व १३२।१७) में फाल्गुन की पूर्णिमा मास के अंत की घोतक है (किम फाल्गुनस्यान्ते पौर्णमास्यां जनार्दन । उत्सवो जायते लोके ग्रामे ग्रामे पुरे पुरे)। मत्स्यपुराण (१५६४-६) में आया है कि स्कंद एवं विशाख चैत्र के कृष्ण पक्ष के १५वें दिन उत्पन्न हुए थे, और चैत्र के शुक्ल पक्ष में ५वें दिन इन्द्र ने दोनों से एक लड़का उत्पन्न किया और छठे दिन उसे राजा के रूप में अभिषिक्त कर दिया । इससे प्रकट होता है कि मत्स्य में चैत्र पूर्णिमान्त है, अमान्त नहीं।
१६. मैत्रे मुहूर्त सम्प्राप्ते मृचिषि दिवाकरे । कौमुदे मासि रेवत्यां शरदन्ते हिमागमे ॥ उद्योगपर्व (८३। ६-७) । और देखिये शत० प्रा० (१०।४।२।१८, २५, २७) एवं त० बा० (३।१०।१।१) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org