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कलियुग के आरम्भ की मीमांसा
६८७ आरम्भ में । राजतरंगिणी (१।५६) ने बृहत्संहिता को उद्धृत कर कहा है कि कौरव एवं पाण्डव कलियुग के ६५३वें वर्ष में थे (१।५१)। विद्वानों ने बहुत प्रयास करके इस भेद को मिटाना चाहा है और इस विषय में बृहत्संहिता के शब्द 'पड्विक-पञ्च-द्वियुतः' को कई प्रकार से समझाया है, जो संतोषप्रद समाधान देने में असमर्थ है। हम 'द्विक' शब्द को 'दो' के अर्थ में क्यों न लें ? लीलावती एवं बृहत्संहिता ने इसे 'दो' के अर्थ में ही लिया है।
शककाल, जो उपर्युक्त श्लोक में आया है, वह पञ्चसिद्धान्तिका (१८) एवं बृहत्संहिता (८।२०-२१) में प्रयुक्त शकेन्द्रकाल या शकभूपाल से भिन्न है, ऐसा मानना कठिन है । वराहमिहिर ने कोई ऐसा संकेत नहीं दिया है कि हम उसे भिन्न मानें। श्री चि० वि० वैद्य ने शककाल को बुद्ध के निर्वाण का काल माना है (महाभारत, एक समीक्षा, पृ० ८०-८१) । किन्तु ऐसा मानना अनुचित है। उनका 'षड् द्विक-पञ्च-द्वियुतः' को २५६६ (न कि २५२६) मानना बुरा नहीं है, क्योंकि उससे युधिष्ठिर के काल-निर्णय के तर्क पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। इस व्याख्या से युधिष्ठिर ई० पू० २४८८ ई० में माने जायेंगे न कि २४४८ ई० में। किन्तु 'षट्' (६), 'द्विक्' (२) आदि शब्दों के साधारण मूल्यों को न मानने में कोई तर्क नहीं है।
यदि भास्कर वर्मा के निधानपुर ताम्रपत्नों की तिथि की उचित समीक्षा की जाय तो वराहमिहिर की स्थिति के पक्ष में बल प्राप्त हो जाता है। इन ताम्रपत्रों ने भास्कर वर्मा की वंशावली को निश्चित करने के लिए उस नरक से आरम्भ किया है जिसका पुत्र भगदत्त कौरवों की ओर से लड़ा था और अर्जुन द्वारा मारा गया था(द्रोणपर्व, अ० २६)। भास्कर वर्मा सातवीं शताब्दी में हर्षवर्धन का समकालीन था। वह पुष्य वर्मा से १२वीं पीढ़ी में था। अर्जुन से मारे जानेवाले भगदत्त का पुत्र वज्रदत्त था जिसके वंशजों ने कामरूप (आसाम) पर ३००० वर्षों तक राज्य किया और तब पुष्प वर्मा राजा हुआ। यदि हम प्रत्येक राज्य-काल के लिए २०वर्षों की औसत अवधि मानें तो पुष्य वर्मा पाँचवीं शताब्दी के आरम्भ में पड़ता है। यदि हम पुष्य वर्मा एवं वज्रदत्त के बीच के ३००० वर्ष जोड़ दें तो हम वज्रदत्त को ई० पू० २५०० सन में पाते हैं जो महाभारत के सम्भावित काल का द्योतक है । यह वराहमिहिर की गणित तिथि (युधिष्ठिर के राज्यकाल की तिथि) ६५३ कलियुग (ई० पू० २४४८ ई०) की समीपता का द्योतक है। यदि हम यह मान लें कि महाभारत की लड़ाई ई० पू० ३१०१ में हुई या कलियुग इसी समय से आरम्भ हुआ, तो पुष्य वर्मा, जो महाभारत के ३००० वर्षों के उपरान्त आविर्भूत हुआ, ई० पू० १०१ में रखा जायगा और ऐसी स्थिति में पुष्य वर्मा एवं भास्कर वर्मा में ७०० या ७५० वर्षों की दूरी पड़ जायगी। १२ राजाओं के लिए ७०० या ७५० वर्षों की अवधि से प्रत्येक राजा के लिए लगभग ६० वर्षों का राज्यकाल मानना पड़ेगा जो सम्भव नहीं है। अतः निधानपुर अभिलेख से महाभारत की तिथि ई० पू० ३१०१ नहीं जंचती, प्रत्युत इससे वराहमिहिर की ई० पू० २५०० वाली तिथि को बल मिल जाता है।
कुछ पुराणों के कुछ ऐतिहासिक वचनों से महाभारत एवं कलियुग के आरम्भ के काल पर प्रकाश पड़ता है। वायुपुराण (६६।४-१५) एवं मत्स्यपुराण (२७३।३६) का कथन है कि परीक्षित के जन्मकाल से लेकर महापद्मनन्द के राज्याभिषेक की अवधि १०५० वर्षों की है । भागवतपुराण (१२।२।२६) में यह अवधि १०१५ वर्षों की है। यहाँ पुराण-उक्तियों में कुछ त्रुटि है । मत्स्य (२७१।१७।३०) ने जरासंध के पुत्र सहदेव के वंशज, मगध के बार्हद्रथ राजाओं के नाम गिनाये हैं और कहा है कि यह वंश सहस्र वर्षों तक राज्य करेगा। इसने आगे (२७२।२-५) चलकर पांच ऐसे राजाओं का वर्णन किया है जिनके उपरान्त शिशुनाक वंश चलेगा और कहा है कि पाँचों राजा मिलकर ३६० वर्ष तक राज्य करेंगे, जिनमें अन्तिम राजा महानंदि (श्लोक ६-१३) होगा, जिसका शूद्रा से उत्पन्न पुन महापन (२७२।१८) होगा। अतः यदि इन तीन वंशों के वर्ष जोड़े जायें तो हमें १५०० की अवधि प्राप्त होगी। यह बात भागवतपुराण (६।२२।४८ एवं १२।१-२) एवं वायुपुराण (६६।३०८-३२१) द्वारा समर्थित है । वायुपुराण का कथन
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