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धर्मशास्त्र का इतिहास प्रारम्भिक काल से ही मत-विपर्यय-सम्बन्धी उक्तियाँ पायी जाती रही है। विश्वरूप (याज्ञ० ३।२५०) ने कहा है कि स्मतियों के अर्थ का अनुसरण तभी करना चाहिये जब कि वह आर्यावर्त में रहने वाले शिष्टों के निश्चित व्यवहार की संगति में बैठ सके। मेधातिथि (मनु ४।१७६) ने संकेत किया है कि नियोग गौतम (१८१४-१४), याज्ञ० (११६८-६६) एवं वसिष्ठ (१७।५६-६५) की स्मृतियों द्वारा आज्ञापित एवं अनुमोदित है,किन्तु लोगों द्वारा निन्द्य होने के कारण यह व्यवहृत नहीं होता। इससे यह सिद्धान्त स्थापित किया जा सकता है कि स्मृतियों की (श्रुतियों की भी) व्यवस्थाएँ नहीं भी मानी जा सकती और लोगों द्वारा आग्रहपूर्वक निन्द्य होने के कारण वे वजित भी हो सकती है। आगे के कलिवयं नामक अध्याय में इस पर अधिक प्रकाश डाला जायगा। 'मेधातिथि' (मनु २।१०) जैसे टीकाकारों ने तो यहां तक कह डाला है कि "धर्मशास्त्र वह है जोधर्म-प्राप्ति के लिए व्यवस्था देता है, स्मृति वह है जिससे कर्तव्य-सम्बन्धी धर्म का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। अत: शिष्टाचार भी स्मृति है।" स्वयं स्मृतियों ने अपने कालों में प्रचलित लोकव्यवहारों को संगहीत किया है, जैसा कि मनु (१।१०७)ने घोषित किया है--"इस ग्रन्थ में धर्म का विवेचन हआ। कर्मों के गुणदोष का तथा चारों वर्गों की प्राचीन परम्पराओं एवं रीतियों का विवेचन हुआ है।"२६मनु (१।१०८)ने आगे जोड़ा है--"आचार (परम्पराएं और रीतियाँ)परम धर्म है, और इसी प्रकार वेद और स्मृति में उद्घोषित व्यवहार (धर्म) परम धर्म है, अतः अपने कल्याण की इच्छा रखनेवाले द्विजों को सप्रयास उनका पालन करना चाहिये।"३०
• न्यायालयों ने परम्पराओं की अनुल्लंघनीयता पर बल देने के लिए मनु के इस वचन को आधार माना है। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि हम मनु के इस वचन का वास्तविक अर्थ समझ लें। हम इसे दो प्रकार से समझ सकते हैं--(१) 'आचार' शब्द के दो विशेषण 'श्रुत्युक्त' एवं 'स्मार्त' हो सकते हैं और श्लोक का प्रथम पाद घोषित करता है कि वेद या स्मृति से घोषित आचार परम धर्म है (यह अर्थ मनु के अधिकांश टीकाकारों ने लिया है। (२) 'आचार' तथा श्रुति एवं स्मृति में उद्घोषित अन्य आचार परम धर्म हैं (यहाँ पर श्लोक के प्रथम पाद में तीन प्रकार के आचारों की ओर संकेत किया गया है, जैसा कि गोविन्दराज एवं नन्दन ने किया है) यदि हम इस श्लोक के पूर्व के और इसके बाद के श्लोकों (जो आचार की प्रशंसा में लिखे गये हैं) पर ध्यान दें तो उपर्युक्त दूसरा अर्थ अधिक स्वाभाविक एवं संगत लगता है और आजकल के निर्णीत विवादों द्वारा गृहीत है। अनुशासन० (१४१।६५) एवं शान्ति० (३५४।६) ने स्पष्ट रूप से कहा है कि धर्म तीन प्रकार का होता है; (१) वेदोक्त, (२) स्मृतिघोषित एवं (३) शिष्टाचार । सुमन्तु ने घोषणा की है कि कुलक्रमागत आचार को शास्त्रानुमोदित व्यवस्थाओं की अपेक्षा अधिक वरीयता मिलनी चाहिये (स्मृतिमुक्ताफल, वर्णाश्रम पृ० ७) । कर्मपुराण (उत्तरार्ध १५॥१६) ने, लगता है, उपर्युक्त दूसरी व्याख्या को उचित माना है, क्योंकि उसमें आया है-"उस आचार का पालन करना चाहिये जो श्रुति एवं स्मृति से घोषित है और जिसका शिष्ट लोग सम्यक् आचरण करते हैं।" 'आचार' शब्द का वास्तविक अर्थ विभिन्न कालों में परिवर्तित होता रहा है और टीकाकारों ने भी इसे कई ढंग से समझा है। आरम्भिक काल में भी, जैसा कि तै० उ०, गौतम (२८।४८ एवं ५१), बौ० ध० सू० (१।१।४-६)
२६. अस्मिन् धर्मोऽखिलेनोक्तो गुणदोषौ च कर्मणाम् । चतुर्णामपि वर्णानामाचारश्चैव शाश्वतः ।। मनु (१।१०७) । इसकी व्याख्या में मेधातिथि कहते हैं --'शाश्वतो वृद्धपरम्परया, नेदानीन्तनः प्रवत्तितः।'
३०. आचारः परमो धर्मः श्रुत्यक्तः स्मार्त एव च । तस्मादस्मिन् सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः।। मनु (१।१०८) । मिलाइये अनुशा० ५० (१४११६५)-वेदोक्तः परमो धर्मः स्मृतिशास्त्रगतोपरः शिष्टाचीर्णः परः प्रोक्तस्त्रयो धर्माः सनातनाः ।। एवं शान्ति० (२५६१३)-सदाचारः स्मृतिवेदस्त्रिविध धर्मलक्षणम् ।
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