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________________ पुराण, स्मृति और आचार की पारस्परिक वरिष्ठता का विचार ६७५ में उद्घोषित है ( देखिये परिभाषाप्रकाश, पृ० २६ एवं कृत्यस्नाकर, पृ० ३६ ) । अपरार्क ( पृ० १५) ने आगे चलकर कहा है कि भविष्यत्पुराण के अनुसार पुराण व्यामिश्र (मिश्रित, शुद्ध वैदिक रूप में नहीं ) धर्म उद्घोषित करते हैं । २७ पुराणों की प्रामाणिकता के विषय में मध्य काल के लेखकों में मतभेद है । मित्र मिश्र ने (याज्ञ० २।२१ की टीका में ) कहा है कि धर्मशास्त्र ( अर्थात् स्मृति) पुराण से अधिक प्रामाणिक नहीं है। अतः स्मृतिवचन एवं पुराण के विरोध में तर्क का उसी प्रकार आश्रय लेना चाहिये जिस प्रकार दो स्मृतियों का विरोध होने पर लिया जाता है । किन्तु, दूसरी ओर 'व्यवहारमयूख' ने मनु ( ६ । १२६) एवं देवल का हवाला देते हुए कहा है कि स्मृतिवचन के विरोध में पुराणवचन का त्याग होना चाहिये और यह भी कहा है कि पौराणिक रीतियों में बहुत-सी स्मृति - विरोधी रीतियाँ पायी जाती हैं ( मनु एवं देवल ने जुड़वाँ बच्चों में पहले उत्पन्न होनेवाले बच्चे को ज्येष्ठ घोषित किया है. किन्तु भागवत पुराण ने उसको जो बाद को उत्पन्न होता है, ज्येष्ठ घोषित किया है) । देखिये 'व्यवहारमयूख' ( पृ०६७, ६८)और ‘राजनीतिप्रकाश' ( पृ० ३७, ३६) जो मित्र मिश्र द्वारा विरचित है। 'निर्णयसिन्धु' ( ३, पृ० २५१ ) ने भी यही बात कही है। पुराणों के प्रति पश्चात्कालीन या मध्यकालीन लेखकों की श्रद्धा इस सीमा तक बढ़ गयी कि उन्होंने पुराणों में उल्लिखित भविष्यवाणियों पर निर्भर रहना आरम्भ कर दिया। पुराणों में आया है कि कलियुग में चारों वर्ण अन्तर्हित हो जायँगे, केवल ब्राह्मण एवं शूद्र वर्तमान रहेंगे, अर्थात् क्षत्रिय एवं वैश्य का अस्तित्व समाप्त हो जायगा ; यद्यपि मनु याज्ञवल्क्य, पराशर आदि स्मृतिकारों एवं विज्ञानेश्वर ( मिताक्षरा के लेखक ) आदि टीकाकारों ने कहा है कि कलियुग में भी चारों वर्ण पाये जाते हैं । २८ देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अध्याय ७, जहां पर कलियुग में क्षत्रियों के अस्तित्व के विषय में प्रकाश डाला गया है। अब हम स्मृतियों एवं परम्पराओं के विरोध की चर्चा करेंगे । वसिष्ठ ( ११५ ) एवं याज्ञ० ( १1७ ) के वचनों पर आधारित सामान्य नियम, जो मिताक्षरा ( याज्ञ० १1७ एवं २1११७), स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० २६६), कुल्लूक (मन् १।२० ) एवं अन्यों द्वारा समर्थित है, यह है कि स्मृति शिष्टों की रीतियों से अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक है । किन्तु २७. अतः स परमो धर्मो यो वेदादधिगम्यते । अवरः स तु विज्ञेयो यः पुराणादिषु स्मृतः ॥ व्यास ( अपरार्क पृ० ६; परिभाषाप्रकाश पृ० २६ एवं कृत्यरत्नाकर पृ० ३६ ) । एवं प्रतिष्ठायामपि पुराणाद्युक्तैवेतिकर्त्तव्यता प्राय नान्या । तेषामेव व्यामिश्रधर्म प्रमाणत्वेन भविष्यत्पुराणे परिज्ञातत्वात् । अपराकं पृ० १५ । २८. यदि हम आधुनिक भारतीय समाज की व्यावहारिक गतिविधियों की सम्यक् समीक्षा करें तथा उन पर पड़े गम्भीर विदेशी संस्कृतिविषयक परिवर्तन प्रभावों की परतों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें, तो शताब्बियों पूर्व पुराणों में कही गयी बातों की सत्यता अपने आप अभिव्यक्त हो जायगी। क्षत्रियों एवं वैश्यों के जाति कुलधर्म आज ब्राह्मणों द्वारा मी यथावत् सम्पादित हो रहे हैं। आज का ब्राह्मण अथवा शूद्र खेती-बारी, व्यापार, युद्ध, पठन-पाठन आदि कार्य कर रहा है; पुरानी सभी अर्थ धर्म-सम्बन्धी प्रवृत्तियां विलुप्त हो गयी हैं । प्राचीन समाजव्यवस्था लुप्त हो गयी है। अब उसका महत्व केवल भावनागत रह गया है। आज के तथाकथित सभी वर्णो के धर्माचारों में उलटफेर हो गया है; जो था, आज नहीं है, जो न था आज प्रकट हो गया है। सभी जाति के लोग सभी कर्म करने लग गये हैं। ( - अनुवादक) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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