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धर्मशास्त्र का इतिहास पति को मिल जाता है (यदि विवाह ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य नामक विवाह-प्रथा से हुआ हो), किन्तु अन्य चार प्रकार के विवाहों वाली स्त्री के मर जाने पर उसका धन माता-पिता को प्राप्त हो जाता है । यही बात विष्णु (१७।१६२१) एवं नारद (दायभाग, ६) में भी पायी जाती है। किन्तु नारद ने अन्यत्र (दायभाग, २) यह कहा है कि माता का धन कन्याओं में बाँटना चाहिये और उनके अभाव में उनकी सन्तानों को मिलना चाहिये । शंख-लिखित ने घोषणा की है कि माता की सम्पत्ति सगे भाइयों (मृत माता के अपने पुत्रों) एवं उनकी कुमारो बहिनों को बराबर-बराबर भाग में मिलनी चाहिये । बृहस्पति का कथन है कि स्त्रीधन सन्तानों को मिलता है, किन्तु कुमारी कन्याओं को वरीयता मिलती है, विवाहित कन्याओं को स्नेह के रूप में थोड़ा-सा मिलता है। पराशर के मत से कुमारी कन्याओं को सम्पूर्ण स्त्रीधन मिल जाता है, किन्तु उनके अभाव में विवाहित कन्याएँ एवं पुत्र बराबर-बराबर बाँट लेते हैं। देवल का कहना है कि स्त्री की मृत्यु पर पुत्र एवं पुत्रियां स्त्रीधन को समान रूप से बांट लेते हैं, यदि सन्तान न हो तो स्त्रीधन पति,
, भ्राता या पिता को मिल जाता है। पराशर (परा० मा० ३, ५५२) के मत से स्त्रीधन कुमारी कन्या को मिल जाता है, पुत्र कुछ नहीं पाता, किन्तु उसे विवाहित कन्याओं के साथ बराबर भाग मिल जाता है । कौटिल्य (३१२, प० १५३) का कथन है कि सधवा रूप में मर जाने पर पत्र एवं पुत्रियाँ स्त्रीधन बांट लेते हैं, पूत्र के अभाव में प्रवियाँ बाँट लेती हैं, पुत्रों एवं पुत्रियों के अभाव में पति ले लेता है, किन्तु शुल्क, अन्वाधेय एवं स्त्रीधन के अन्य प्रकार (सम्बन्धियों से जो प्राप्त होते हैं) सम्बन्धियों को मिल जाते हैं । कात्यायन (६१२-६२०) ने, जिन्होंने विस्तार के साथ स्त्रीधन के विषय में लिखा है, स्त्रीधन के उत्तराधिकार के बारे में यह लिखा है--"सधवा बहिनों को भाइयों के साथ स्त्रीधन का भाग लेना चाहिये, यही स्त्रीधन एवं विभाजन के विषय में कानून है। पुत्रियों के अभाव में पत्रों को स्त्रीधन मिलता है। सम्बन्धियों द्वारा प्रदत्त उनके (सम्बन्धियों के) अभाव में पति को मिलता है। जो कछ अचल सम्पत्ति माता-पिता द्वारा पुत्री को दी जाती है वह उसकी मृत्यु के उपरान्त सन्तान के अभाव में भाई की हो जाती है। आसुर से लेकर आगे के विवाहों वाली स्त्री को माता-पिता द्वारा जो कुछ प्राप्त होता है वह उसके संतानहीन होने पर माता-पिता को मिल जाता है (यम, स्मृतिच० २, पृ० २८६ एवं दायभाग ४।२।२८, पृ० ८८)।" प्रथम दो श्लोक विरोधी बातें कहते हैं और हमें उन्हें गौतम (२८-२२) की संगति में पढ़ना चाहिये । सम्भवतः कात्यायन ने निम्न बातें कही हैं--(१) कुमारी कन्या को वरीयता मिलती है ; (२) यदि कोई कुमारी कन्या न हो तो विवाहित सधवा कन्याएँ अपने भाइयों के साथ-साथ भाग पाती हैं; (३) यदि पुत्र न हों या विवाहित सधवा पुत्रियाँ न हों तो विधवा पुत्रियों को स्त्रीधन मिलता है; (४) पितृपक्ष एवं मातृपक्ष के सम्बन्धियों द्वारा प्रदत्त स्त्रीधन उन्हीं को प्राप्त होता है और उनके अभाव में पति पाता है; (५) सन्तानहीन होने पर माता-पिता द्वारा प्रदत्त अचल सम्पत्ति भाई को प्राप्त होती है। (६) आसुर, राक्षस एवं पैशाच विवाहों वाली स्त्री के सन्तानहीन होने पर स्त्रीधन माता-पिता को प्राप्त हो जाता है।
अब हम टीकाओं की उक्तियों का विवेचन करेंगे। सभी ने स्त्रीधन के कुछ प्रकारों के लिए पुत्रियों को पुत्रों की अपेक्षा वरीयता दी है। पुरुष की सम्पत्ति एवं स्त्री के उत्तराधिकार के विषय में जो विभिन्नता पायी जाती है, उसके विषय में अर्थात् उसके कारण के विषय में कहीं भी कुछ स्पष्ट नहीं कहा गया है। मिताक्षरा' (याज्ञ०२।११७) ने यह कहा है कि पुत्री में पुत्र की अपेक्षा माता के शरीर का अंश अधिक रहता है, अतः उसे स्त्रीधन की प्राप्ति में वरीयता मिली है । सम्भवतः इसका कारण यह है कि जब पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति में अपनी बहिनों को उतराधिकार नहीं देते तो पुत्रियों को भी स्त्रीधन की प्राप्ति में वैसा अधिकार मिलना चाहिये।
'मिताक्षरा' के अनुसार स्त्रीधन के उत्तराधिकार की दो शाखाएं हैं; एक शुल्क के विषय में, दूसरी स्त्रीधन के. अन्य प्रकारों के लिए । 'मिताक्षरा' ने गौतम का उल्लेख करते हुए व्ववस्था दी है कि शुल्क सर्वप्रथम सहोदरों (सगे
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