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धर्मशास्त्र का इतिहास
हटाता या दूर करता है ।" "यह परिभाषा न्याय शासन को बहुत उच्च पद दे देती है । भारतीय दर्शन शास्त्र की शाखाओं का उद्देश्य है सत्य या परम सत्य की खोज करना । उसी प्रकार कात्यायन का कथन है कि क़ानून का उद्देश्य है झगड़े के बीच सत्य का उद्घाटन करना । किन्तु कुछ अन्तर भी है। सत्य की खोज में दार्शनिक मनमाना समय ले सकता है, किन्तु न्याय यथासम्भव शीघ्रता से किया जाता है। इतना ही नहीं, न्याय्य विधि अपने ढंग से सत्य की खोज करती है, इसे वाचिक एवं लेख्य प्रमाण पर आधारित होना पड़ता है । किन्तु सत्य की खोज में दार्शनिक अपनी बौद्धिकता एवं आत्मपरकता पर निर्भर रहता है । मिताक्षरा (याज्ञ० २1१ ), शुक्र (४|५|४) एवं व्यवहारमयूख ने व्यवहार को अपने-अपने ढंग से समझाया है ।
व्यवहारपद का अर्थ है झगड़े, विवाद या मुकदमे का विषय । कौटिल्य ( ३।१६ एवं ४।७ ) एवं नारद ० ( दत्ताप्रदानिक १, अभ्युपेत्याशुश्रूषा १ ) ने 'व्यवहारपद' के स्थान पर 'विवादपद' का प्रयोग किया है । मनु ( ८ ) से पता चलता है कि 'पद' का अर्थ है 'स्थान' । याज्ञ० (२१५) ने इसका अर्थ यों बताया है--'यदि कोई व्यक्ति जो दूसरों द्वारा स्मृति-नियमों एवं रूढ़ियों के विरोध में तंग किया जाता है, वह राजा या न्यायाधिकारी को सूचित करता है तो इसे व्यवहारपद कहते हैं ।' बहुत प्राचीन काल से १८ व्यवहारपदों की गणना होती आयी है । इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्यों के बहुत से झगड़े १८ शीर्षकों में बांटे जा सकते हैं । स्वयं मनु ( ८1८) ने लिखा है कि यह संख्या कोई आदर्श नहीं है । हाँ, इसमें विशेषतः सभी मुख्य झगड़े आ जाते हैं । मेधातिथि एवं कुल्लूक ने यह बात और स्पष्ट कर दी है।
मनु एवं अन्य स्मृतिकारों में व्यवहारपदों की संख्या एवं संज्ञा को लेकर पर्याप्त भिन्नता है। निम्नलिखित तालिका इस कथन को स्पष्ट करती है । सब लोग एक ही तारतम्य भी नहीं रखते । मनु एवं नारद की भाँति याज्ञवल्क्य सभी व्यवहारपदों को एक स्थान पर दिया भी नहीं है ।
७. वि नानार्थेऽव सन्देहे हरणं हार उच्यते । नानासन्देहहरणाद् व्यवहार इति स्मृतः ॥ कात्या०, ( व्यवहारमयूख पृ० २८३, कुल्लूक, मनु ८ १, दीपकलिका पृ० ३६ में उद्धृत ) दीपकलिका, पृ०३६ में आया है— 'ऋणादानादिनानाविवादपदविषयः निराक्रियतेऽनेनेति नानासंशयहारी विचारः व्यवहारः । प्रयत्नसाध्ये विच्छिन्ने धर्मास्ये न्यायविस्तरे । साध्यमूलस्तु यो वादो व्यवहारः स उच्यते । । अपरार्क पृ०५६६, स्मृतिचन्द्रिका, २, पृ० १, पराशरमाधवीय, ३, पृ० ५-७, व्यवहारप्रकाश, पृ० ३-४ । मदनरल ने यों लिखा है- ' प्रयत्नसाध्ये कष्टसाध्ये गृहक्षेत्रादि विषये विच्छिन्ने स्वेच्छ्या भोक्तुमशक्यो सति न्यायविस्तरे न्यायः प्रमाणं विस्तीर्यते प्रपञ्च्यते निर्णीयते यस्मिंस्तस्मिन् धर्माख्ये धर्मानामके धर्माधिकरणमिति प्रसिद्धे सभालक्षणे स्थले साध्यमूलको यो गृहक्षेत्रादिविषयो वादः स व्यवहार इति । 'स्वधनस्य यथा प्राप्तिः परधर्मस्य वर्जनन् । न्यायेन यत्र क्रियते व्यवहारः स उच्यते ॥ हारीत, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १ में उद्धृत ।
८. व्यवहारः तस्य पदं विषयः । मिता० (याज्ञ० २।६ ) ; पदं स्थानं निमित्तमिति यावत् । और देखिए इसी पर अपरार्क की टीका ।
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