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धर्मशाला का इतिहास उपसद् के उपरान्त ईंटों की सजावट आरम्भ की जाती है। वेदिका-स्थल पर सर्वप्रथम जहाँ अश्व अपना पैर रख चुका रहता है (आप० १६॥२२॥३), एक कमल-पत्र रखा जाता है जिस पर यजमान द्वारा धारण किया हुआ आभूषण रखा जाता है। मन्त्रों का उच्चारण होता है (वाज• संहिता १३॥३, तैत्तिरीय संहिता ४।२।८।२)। इस आभूषण के दक्षिण एकं सोने की मनुष्याकृति रखी जाती है, जिसकी प्रार्थना (उपस्थान) की जाती है। इसके उपरान्त कई प्रकार की विधियों से नाना प्रकार की ईंटें, यथा वियज, ऋतव्य, अवका, अषाढा, स्वयमातृष्णा रखी जाती हैं। घृत, मघु, दषि से लेपित एक कछुवा बांधकर रख दिया जाता है। इसके उपरान्त अनेक कृत्य होते हैं, जिनका विवरण यहाँ अपेक्षित नहीं है। जैसा कि आरम्म में ही लिखा जा चुका है, पांचों जीवों के सिर भी यथास्थान रखे जाते है। सत्यापाठ (११।५।२२) के मत से वेविका के प्रत्येक स्तर में २०० ईंटें (कुल मिलाकर २००४५=१००० इंटें) लगती हैं। शतपथ ब्राह्मण एवं कात्यायन (१७७।२२-२३) के मत से पांचों स्तरों में कुल मिलाकर १०,८०० इंटें लगती हैं। निर्माण की अवधि के विषय में भी कई मत हैं। कुछ लोगों के मत से चार स्तरों में ८ मास तथा पांचवें में चार मास लगते हैं। किन्तु सत्याषाढ (१२॥१॥१) एवं आपस्तम्ब (१७११-१-११, १७२८, १७।३३१) ने-सभी स्तरों के लिए पांच दिनों की अवधि घोषित की है।
सभी स्तरों के निर्मित हो जाने पर वेदिका पर आहवनीय अग्नि की प्रतिष्ठा कर दी जाती है। इसके उपरान्त वकार या वृत्ताकार आठ विष्ण्यों का निर्माण होता है। एक छोटा, गोल तथा विभिन्न रंगों वाला प्रस्तर (अश्मा) बाम्नीघ्र के आसन के दक्षिण में रख दिया जाता है। इसी प्रकार अन्य कृत्य भी किये जाते हैं। रुद्र के लिए शतरुद्रिय होम किया जाता है। अर्क नामक पौधे के पत्तों से ४२५ आहुतियां रुद्र तथा उसके अन्य भयानक स्वरूपों को दी जाती हैं। मन्त्रों का उच्चारण होता रहता है (वाजसनेयी संहिता १६।१-६६, तैत्ति० सं० ४।५।१-१०)। इसके उपरान्त वेदिका को जल से ठण्डा किया जाता है। बहुत-सी आहुतियां दी जाती हैं, जिनका विवेचन यहाँ अपेक्षित नहीं है।
सोमयाग की विधि भी की जाती है। जो अग्नि-चयन का कृत्य करते हैं उन्हें व्रत भी करने पड़ते हैं। वे किसी के सामने झुकते नहीं, वर्षा में बाहर नहीं निकलते, पक्षियों का मांस नहीं खाते, शूद्र नारी से संभोग नहीं करते, आदिआदि। जब कोई दूसरी बार अग्नि-चयन कर लेता है, वह अपनी ही जाति वाली पत्नी से सहवास कर सकता है। तीसरी बार अग्नि-चयन कर लेने पर अपनी स्त्री से भी संभोग करना मना है (आप० १७।२४।१-५, कात्या० १८॥ ६।२५-३१, सत्या० १२१७।१५-१७) । जैमिनि (२।३।२१-३३) के मत से अग्नि-चयन अग्नि का संस्कार है न कि कोई स्वतन्त्र यज्ञ।
यदि कोई व्यक्ति अग्नि-चयन कर लेने पर कोई लाभ नहीं उठा पाता तो वह पुनश्चिति कर सकता है। आपस्तम्ब (१८१२४११) के मत से पुनश्चिति का सम्पादन सम्पत्ति, वेद-शान या सन्तान के लिए किया जाता है।
अग्नि-चयन के सम्पादन के समय जो त्रुटियां होती हैं, उनके लिए बहुत-से सरल एवं जटिल प्रायश्चित्तों की व्यवस्था की गयी है, जिनका वर्णन अगले भाग में होगा। इस भाग में वर्णित यज्ञों के दार्शनिक स्वरूप पर प्रकाश आगे डाला जायगा। आगे हम यह भी देखेंगे कि ये यज्ञ कालान्तर में समाप्त-से क्यों हो गये और इनके स्थान पर अन्य धार्मिक कृत्य क्यों किये जाने लगे। .
९. कछवा प्रजापति के कार्य की अनुकृति का प्रतीक है। कछुवे का रूप धारण करके ही प्रजापति ने इस संसार का निर्माण किया था। सम्भवतः इसी क्रिया के आधार पर भवन, पुल आदि के निर्माण में पशु-बलि आदि
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