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अनियन (बेदी-रचना)
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महाव्रत बाला साम-पाठ किया जाता है। सत्र में लगे हुए लोगों को गालियाँ दी जाती हैं। एक वेश्या एवं एक ब्रह्मचारी गाली-गलौज होता है। आर्य एवं शूद्र में भी युद्ध का नाटक होता है जिसमें आर्य जीत जाता है (ताण्ड्य ५/५ ॥ १४-१७, सत्या० १६।७।२८-३२) ।
जो लोग सत्र में सम्मिलित नहीं होते उनमें सम्भोग होता है। यह कर्म एक घिरे हुए स्थल में होता है। यह कृत्य प्रजापति के कार्य का प्रतीक माना जाता है, क्योंकि वह सृष्टि का विधाता है। महाव्रत प्रजापति के लिए ही सम्पादित होता है अतः यह कृत्य विशेष रूप से उससे ही सम्बन्धित है। वेदी के दक्षिण कोण के पूर्व की ओर एक रम रखा रहता है जिस पर चढ़कर एक सामन्त या क्षत्रिय धनुष-बाण से युक्त होकर वेदी की तीन बार प्रदक्षिणा करता है और एक चर्म पर बाण फेंकता है। इस कृत्य के समय ढोलकें बजती रहती हैं। पुरोहित गाते हैं, यजमानों की पत्नियाँ fraftयों का कर्म प्रदर्शित करती हैं। आठ दस दासियाँ सिर पर जलपूर्ण घड़े लेकर नाचती गाती है और गाथाएँ कहती हैं जिनमें गौ की महिमा की प्रधानता रहती है। लगता है, महाव्रत प्राचीन काल का कोई लौकिक कृत्य है जो यज्ञ की थकान मिटाने के लिए सम्पादित होता था । ऐतरेय आरण्यक (१ एवं ५ ) ने महाव्रत को एक विशिष्ट रूप दिया है और उपर्युक्त बातों का उल्लेख किया है।"
उदयनीय दिन में मैत्रावरुण, विश्वे देवों एवं बृहस्पति ( कात्यायन १३१४/४) को तीन अनुबन्ध्या गायें बाहुतियों के रूप में दी जाती हैं।
यद्यपि सूत्रों ने सौ-सौ या सहस्र वर्षों तक के सत्रों का वर्णन किया है, किन्तु प्राचीन काल के लेखकों ने भी उल्लेख किया है कि ऐसे सत्र, वास्तव में, सम्पादित होते नहीं थे, कम-से-कम ऐतिहासिक कालों में उनका कोई प्रमाण नहीं मिलता। पतंजलि ने महाभाष्य में लिखा है कि उनके समय के आस-पास सौ या सहस्र वर्षों तक चलने वाले सत्रों का सम्पादन नहीं होता था और याज्ञिकों ने सत्रों के विषय में जो नियम बनाये हैं वे सभी प्राचीन ऋषियों की परम्परा के योतक मात्र हैं ( महाभाष्य, भाग १ पृ० ९ ) ।
अन्य सत्रों में सारस्वत सत्र अत्यन्त व्यापक एवं करणीय माने गये हैं, क्योंकि उनके सम्पादन के सिलसिले में सरस्वती तथा अन्य पवित्र नदियों के पावन स्थलों पर यजमानों को जाना पड़ता था। इस विषय में देखिए, आश्वलायन ( १२।६), लाट्यायन (१०।१५) एवं कात्यायन ( ६।१४ ) ।
अग्निचयन
after after का निर्माण अत्यन्त गूढ़ एवं जटिल है।
श्रीत यज्ञों में यह कृत्य सबसे कठिन है। शतपथ ब्राह्मण में लगभग एक तिहाई भाग ( १४ भागों में ५ भाग) चयन से ही सम्बन्धित है। आरम्भ में चयन एक स्वतन्त्र कृत्य था, किन्तु आगे चलकर यह सोम-यज्ञों के अन्तर्गत आ गया। इस कृत्य की जड़ में कुछ विशिष्ट जगत्सृष्टि-विषयक सिद्धान्त पाये जाते हैं। मृग्वेद (१०।१२१) में भी हिरण्यगर्भ या प्रजापति सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के विधाता के रूप में व्यक्त किया गया है; उत्पत्ति, नाश एवं पुनरुत्पत्ति का नियम शाश्वत माना गया है; अजब-गतियाँ सदा से चलती आयी हैं और चलती जायेंगी, ऐसा विश्वास बहुत प्राचीन काल से चला आया है (धाता यथापूर्वमकल्पयत्, ऋग्वेद
७. शब्दामध्वर्यवः कारयन्ति । एतस्मिन्नहनि प्रभूतमन्नं दद्यात् । राजपुत्रेण धर्म व्यामयन्त्याध्नन्ति भूमिम्युनि पत्यश्च काण्डवीणा भूतानां च मैथुनं ब्रह्मचारिपुंश्चल्योः संप्रवादोनेकेन साम्ना निष्केवल्याव स्तुवते यनस्तोत्रियेण प्रतिपद्यते । ऐ० आ० (५1१14) |
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