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________________ ५६८ धर्मशास्त्र का इतिहास नामक ४९ होम दक्षिणाग्नि में किये जाते हैं (शतपय ब्रा० १३॥१॥३॥५, तै० सं० ७१।१९) । इस प्रकार सविता की इष्टियां, गायन, पारिप्लव-श्रवण एवं पुति की आहुतियों साल भर चला करती हैं। साल भर तक यजमान राजसूय के समान ही कुछ विशिष्ट व्रत करता रहता है (लाट्या० ९।९।१४) । अध्वर्यु, गानेवालों एवं होता को प्रचुर दक्षिणा मिलती है। यदि अश्वमेध की परिसमाप्ति के पूर्व अश्व मर जाय या किसी रोग से ग्रस्त हो जाय तो विशुदि के कई नियम बतलाये गये हैं (आप० २२१७।९-२०, कात्या० २०१३।१३-२१)। यदि शत्रु द्वारा अश्व का हरण हो जाय, तो अश्वमेष नष्ट हो जाता था। वर्ष के अन्त में अश्व अश्वशाला में लाया जाता था और तब यजमान दीक्षित किया जाता पा। इस विषय में १२ दीक्षाओं, १२ उपसदों एवं ३ सुत्या दिनों (ऐसे दिन जिनमें सोमरस निकाला जाता था) की व्यवस्था की गयी है। देखिए शतपथब्राह्मण (१३।४।४।१), आश्वलायन (१०८।१) एवं लाट्यायन (९।९।१७) । दीक्षा के उपरान्त यजमान की स्तुति देवताओं की मांति होती है तथा सोमरस निकालने के दिनों में, उदयनीया इष्टि, अनुबन्ध्या एवं उदवसानीया के समय वह प्रजापति के सदृश समझा जाता है (आप० २०७।१४-१६) । कुल मिलाकर २१-२१ अरनियों की लम्बाई वाले २१ यूप खड़े किये जाते हैं। मध्य वाला यूप राज्जुदाल (श्लेष्मातक) की लकड़ी का होता है जिसके दोनों पावों में देवदारु के दो यूप होते हैं, जिनके पार्श्व में बिल्व, खदिर एवं पलाश के यूप खड़े किये जाते हैं (तं ०. ब्रा० ३१८१९, शतपथ० १३।४।४।५, आप० २०९।६-८ एवं कात्या० २०।४।१६-२०)। इन यूपों में बहुत-से पशु बाँधे जाते हैं और उनकी बलि दी जाती है। यहाँ तक कि शूकर ऐसे बनले पशु तथा पक्षी भी काटे जाते हैं (आप० २०।१४।२)। बहुत-से पक्षी अग्नि की प्रदक्षिणा कराकर छोड़ भी दिये जाते हैं। सोमरस निकालने के तीन दिनों में दूसरा दिन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि उस दिन बहुत-से कृत्य होते हैं। यज्ञ का अश्व अन्य तीन अश्वों के साथ एक रथ में जोता जाता है जिस पर अध्वर्यु एवं यजमान चढ़कर किसी तालाब, झील या जलाशय को जाते हैं और अश्व को पानी में प्रवेश कराते हैं (कात्या० २०१५।११-१४)। यज्ञ-स्थल में लौट आने पर पटरानी, राजा की अत्यन्त प्रिय रानी अर्थात् वावाता तथा त्यागी हुई रानी (परिवृक्ता) क्रम से अश्व के अग्रभाग, मध्यभाग एवं पृष्ठभाग पर धृत लगाती हैं। वे "भूः, भुवः एवं स्वः" नामक शब्दों के साथ अश्व के सिर, अयाल एवं पूंछ पर १०१ स्वर्ग-गुटिकाएँ (गोलियां) बांधती हैं। इसके उपरान्त कतिपय अन्य कृत्य किये जाते हैं। ऋग्वेद की १११६३ (आश्व० १०८।५) नामक ऋचा के साथ अश्व की स्तुति की जाती है। घास पर एक वस्त्र-खण्ड बिछा दिया जाता है जिस पर एक अन्य चद्दर रखकर तथा एक स्वर्ण-खण्ड डालकर अश्व का हनन किया जाता है। इसके उपरान्त रानियाँ दाहिने से बायें जाती हुई अश्व की तीन बार परिक्रमा करती हैं (वाजसनेयी संहिता २३॥१९), रानियाँ अपने वस्त्रों से मृत अश्व की हवा करती हैं और दाहिनी ओर अपने केश बांधती हैं तथा बायीं ओर खोलती हैं। इस कृत्य के साथ वे दाहिने हाथ से अपनी बायीं जाँघ पर आघात करती हैं (आप० २२॥१७॥१३, आश्व० १०1८1८)। पटरानी (बड़ी रानी) मृत अश्व के पार्श्व में लेट जाती है और अध्वर्यु दोनों को नीचे पड़ी चादर से ढक देता है। पटरानी इस प्रकार मृत भश्व से सम्मिलन करती है (आप० २२।१८।३-४, कात्या० २०१६।१५-१६)। इसके उपरान्त आश्वलायन (१०। ८1१०-१३) के मत से वेदी के बाहर होता पटरानी को अश्लील भाषा में गालियां देता है, जिसका उत्तर पटरानी अपनी एक सौ दासी राजकुमारियों के साथ देती है। इसी प्रकार ब्रह्म नामक पुरोहित एवं वावाता (प्रियतमा रानी) भी करते हैं, अर्थात् उनमें भी अश्लील भाषा में गालियों का दौर चलता है। कात्यायन (२०१६।१८) के अनुसार चारों प्रमुख पुरोहितों एवं क्षत्रों (चॅवर डुलाने वालियों) में भी वही अश्लील व्यवहार होता है और ये सभी रानियों एवं उनकी नवयुवती दासियों से गन्दी-गन्दी बातें करते हैं (वाजसनेयी संहिता २३।२२-३१, शतपथ० १३।२।९ एवं लाट्या. ९।१०।३-६) इसके उपरान्त दासी राजकुमारियां पटरानी को मृत अश्व से दूर करती हैं। अश्व को पटरानी, वाषाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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