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________________ सोमयज्ञ (वाजपेय) ५५९ अध्वर्यु या उसका शिष्य यजमान से वैदिक मन्त्र कहलाने के लिए उसके साथ बैठ जाता है। अन्य लोग, जिन्हें वाजस्तृत कहा जाता है, दौड़ में सम्मिलित होने के लिए शेष १६ रथों में बैठ जाते हैं। सोलहों रथों की पंक्ति के किसी एक रथ में एक क्षत्रिय या वैश्य बैठ जाता है। इस प्रकार रथ दौड़ आरम्भ हो जाती है । इस समय १७ ढोलकें बज उठती हैं । बृहस्पति के लिए १७ पात्रों में पके हुए चावल (नीवार) के चरु को सभी घोड़े सूंघ लेते हैं। सबसे आगे यजमान का रथ होता है । अध्वर्यु यजमान मे विजय-मंत्र अर्थात् 'अग्निरेकाक्षरेण' (वाज० सं० ८।३१-३४, तैत्ति० सं० १ १।११) कहलाता है। लक्ष्य तक पहुँच जाने पर रथ उत्तर की ओर जाकर और फिर घूमकर दक्षिणाभिमुख हों जाता है। सभी रथ पुनः यज्ञस्थल पर लौट आते हैं और सभी घोड़ों को पुन: नीवार (जंगली चावल ) का चरु सुंघाया जाता है। इसके उपरान्त दुन्दुभि- विमोचनीय होम होता है, अर्थात् ढोलक ( दुन्दुमि) बजते समय होम किया जाता है। एक-एक बेर (कृष्णल नामक एक प्रकार की तोल के बराबर स्वर्ण खण्ड) रथ में बैठनेवाले सभी लोगों को दिया जाता है जिसे वे पुनः लौटा देते हैं। इन बेरों को ब्रह्मा ग्रहण करता है। स्वर्ण पात्र में रखा हुआ मधु पात्र के सहित ब्रह्मा को दिया जाता है। इसके उपरान्त सोम-पात्र ग्रहण किये जाते हैं। अध्वर्यु होतृ-चमस ग्रहण करता है । इसी प्रकार चमसाध्वर्यु लोग भी अपने-अपने पात्र उठाते हैं। इसके उपरान्त अन्य कृत्य किये जाते हैं जिनका वर्णन यहाँ आवश्यक नहीं है। वाजपेय यज्ञ के उपरान्त यजमान क्षत्रिय की भाँति व्यवहार करता है, अर्थात् वह अध्ययन कर सकता है या दान कर सकता है, किन्तु अध्यापन एवं दान-पहण नहीं कर सकता। इसके उपरान्त वह अभिवादन करने के लिए स्वयं खड़ा नहीं होता और न ऐसे लोगों के साथ खाट पर बैठ सकता है जिन्होंने वाजपेय यज्ञ नहीं किया है । अध्वर्यु यजमान वाले रथ को तथा यूप में बँधे हुए १७ परिधानों को ले लेता है। दक्षिणा के विषय में कई मत हैं (देखिए आप ० १८।३।४-५, आश्व० ९/९/१४-१७, कात्या० १४।२।२९-३३ एवं लाट्या० ८।११।१६-२२) । आश्वलायन का कहना है कि दक्षिणा के रूप में १७०० गायें, १७ रथ (घोड़ों के सहित), १७ घोड़े, पुरुषों के चढ़ने योग्य १७ पशु, १७ बैल, १७ गाड़ियाँ, सुनहरे परिधानों-झालरों से सजे १७ हाथी दिये जाते हैं । ये वस्तुएँ पुरोहितों में बांट दी जाती है। वाजपेय यज्ञ में बहुत-से प्रतीकात्मक तत्त्व पाये जाते हैं। आश्वलायन ( ९/९/१९) का कहना है कि वाजपेय के सम्पादन के उपरान्त राजा को चाहिए कि वह राजसूय यज्ञ करे और ब्राह्मण को चाहिए कि वह उसके उपरान्त बृहस्पतिसव करे ।' अग्निष्टोम तथा अन्य सोमयज्ञ 'एकाह' यज्ञ कहे जाते हैं, क्योंकि उनमें सोमरस प्यालियों द्वारा एक ही दिन तीन बार (प्रातः मध्याह्न एवं सायं ) पिया जाता है। आश्वलायन (९१५-११), बौधायन (१८११-१०), कात्यायन जयत ।' यह उन मन्त्रों में एक है जो ऋग्वेद में नहीं पाये जाते । यदि ब्रह्मा इस मन्त्र का गान नहीं कर सकता तो वह इसे तीन बार पढ़ता है (आश्व० ९।९।३) ३. जैमिनि (४।३।२९-३१) के मत से बृहस्पतिसव बाजपेय का ही एक अंग है । तैत्तिरीय ब्राह्मण (२७३१), आपस्तम्ब (२२/७/५) तथा आश्वलायन (९/५/३) के अनुसार बृहस्पतिसव एक प्रकार का एकह सोमयज्ञ है जो 'आधिपत्य' के अभिलाषो द्वारा किया जाता है। आश्वलायन (९१५१३) ने ब्रह्मवचंस (आध्यात्मिक महत्ता) के अभिलाषी के लिए इसे करने को कहा है। तैतिरीय ब्राह्मण (२०७१) ने राज-पुरोहित पद की प्राप्ति के लिए इसे करने को कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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