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सोमसोमेव
अतिरात्र इस यज्ञ का नाम ऋग्वेद (७।१०३१७) में भी आया है। यह एक दिन और रात्रि में समाप्त होता है अतः इसका नाम अतिरात्र है। आपस्तम्ब (१०१२।४) का कहना है कि कुछ लोगों के मत से यह अग्निष्टोम के पूर्व सम्पादित होता है। अतिरात्र में २९ स्तोत्र एवं २९ शस्त्र होते हैं। इसमें अतिरिक्त स्तोत्र एवं शस्त्र रात्रि के समय तीन. स्तोत्रों एवं शस्त्रों के चार आवों में, जिन्हें पर्याय कहा जाता है, कहे जाते हैं। आश्वलायन (६।४।१०) ने इन १२ शस्त्रों की ओर संकेत किया है। इसमें आश्विन नामक शस्त्र गाये जाते हैं, किन्तु इसके पूर्व रात्रि में छ: बाहुतियां दी जाती हैं। आश्विन-शस्त्रों की विधि प्रातरनुवाक के अनुसार होती है और सूर्योदय तक कम-से-कम एक सहन मन्त्र कह दिये जाते हैं। सन्धिस्तोत्र का पाठ सन्ध्या काल में होता है। इसका स्वर स्वन्तर होता है। यदि सूर्य का उदय न हो तो होता ऋग्वेद (११११२) का पाठ करता रहता है। किन्तु सूर्य उदय हो जाय तो वह सौरी ऋचाएं (ऋ० १०।१५८, ११५०।१-९, १११५, १०॥३७) कहता है। सोमरस निकालने के दिन सरस्वती को एक भेड़ (कुछ लोगों के मत से भेड़ा) चढ़ायी जाती है (शतपथ ब्राह्मण ९७, पृ० ९६३)। रात्रि में प्रमुख चमस इन्द्र अपिशर्वर को दिये जाते हैं। दो कपालों पर बनी एक रोटी (पुरोडाश) तथा एक प्याली मर सोमरस अश्विनी को प्रतिप्रस्थाता द्वारा दिया जाता है। इस यज्ञ के विषय में विस्तार से जानने के लिए देखिए ऐतरेय ब्राह्मण (१४॥३ एवं १६५-७), आश्वलायन (६।४-५), सत्याषाढ (९।७, पृष्ठ ६६२-६६५), आपस्तम्ब (१४॥३॥८---१४।४।११)।
अप्तोर्याम यह यज्ञ अतिरात्र के सदृश है, और प्रतीत होता है, यह उसी का विस्तार मात्र है। इसमें चार अतिरिक्त स्तोत्र (अर्थात् कुल मिलाकर ३३ स्तोत्र) एवं चार अतिरिक्त शस्त्र होता एवं उसके सहायकों द्वारा पढ़े जाते हैं। अग्नि, इन्द्र, विश्वे-देव एवं विष्णु (आप० १४।४।१२-१६, सत्यापाड ९७, पृ० ९६६-९६७, शांखायन १५।५।१४-१८ एवं सत्याषाढ १०४, पृ० ११११) के लिए क्रम से एक-एक अर्थात् कुल मिलाकर चार चमस (सोमरस की आहुति देने वाले एक प्रकार के पात्र) होते हैं। आश्वलायन (९।११।१) के मत से यह यज्ञ उन लोगों द्वारा सम्पादित होता है जिनके पशु जीवित नहीं रहते या जो अच्छी जाति के पक्ष के अभिकांक्षी होते हैं। अप्तोर्याम की दक्षिणा सहनों गौएँ होती है। होता को रजतजटित तथा यदहियों से खींचा जाने वाला रय मिलता है। बहुधा यह यज्ञ बन्य यज्ञों के साथ किया जाता है। ताण्ड्य ब्राह्मण (२०१३।४-५) का कहना है कि इसका नाम अप्तोर्याम इसलिए पड़ा है कि इसके द्वारा अभिकांक्षित वस्तु प्राप्त ('आप' धातु से बना हुआ शब्द) होती है।
वाजपेय 'वाज-पेय का शाब्दिक अर्थ है 'भोजन एवं पेय' या 'शक्ति का पीना' या भोजन का पीना' या दौड़ का पीना। यह भी एक प्रकार का सोमया है, अर्थात् इसमें भी सोमरस का पान होता है, अतः इस यज्ञ के सम्पादन से भोजन (अन्न), शक्ति आदि की प्राप्ति होती है। इसमें षोडशी की विधि पायी जाती है और यह ज्योतिष्टोम का ही एक स्म है, किन्तु इसकी अपनी पृथक् विशेषताएँ भी हैं। इस यज्ञ में '१७' की संख्या को प्रमुखता प्राप्त है। इसमें स्तोत्रों एवं
१. वाजपेय के कई अब कहे गये हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण (१२३४२) का कहना है-"वावाप्यो वा एक बाचं होतेन देवा ऐप्सन् । सोमो वाजपेयः... अन्नं वै वाजपेयः।" शांसायनौत० (१५१४-६) का बहना है-'पानं पेयाः। असं वाजः। पानं वै पूर्वमवालम् । तयोरुभयोराप्त्य।"
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