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________________ ५५४ धर्मशास्त्र का इतिहास चार पृष्ठस्तोत्र, तथा सायंकालीन सवन में केवल दो स्तोत्र, यथा आर्भव पवमान तथा अग्निष्टोम साम। इस प्रकार कुल १२ स्तोत्र हुए। इसी प्रकार १२ शस्त्र ये हैं-प्रातःकाल में आज्यशस्त्र (होता द्वारा), प्रोगशस्त्र (होता द्वारा) एवं तीन आज्यशस्त्र (मंत्रावरुण, ब्राह्मणाच्छंसी एवं अच्छावाक द्वारा-ये तीनों होत्रक कहे जाते हैं); मध्याह्नकालीन सवन में मरुत्वतीय शस्त्र (होता द्वारा), निष्केवल्य शस्त्र (होता द्वार) एवं होता के सहायकों (मैत्रावरुण, अच्छावाक एवं ग्रावस्तुत्) द्वारा अन्य तीन शस्त्र; तथा सायंकालीन सवन में होता द्वारा कहे जाने वाले दो शस्त्र, यथा-वैश्वदेव शस्त्र एवं आग्निमारुत शस्त्र। त्रिवृत्स्तोम में बहिष्पवमान का, पंचदशस्तोम में चार आज्यस्तोत्र एवं माध्यन्दिन पवमान का, सप्तदशस्तोम में चार पृष्ठस्तोत्र एवं आर्भव पवमान का तथा एकविंशस्तोम में यज्ञायज्ञीय का गायन होता है। स्तोम' का अर्थ है कई छन्दों का समूह। पंचदशस्तोम आदि अन्य शब्दों का आशय यह है कि छन्द (अधिकतर तीन) १५-१७-२१ आदि संख्याओं तक बढ़ा दिये जाते हैं। यह बढ़ाना कई विधियों (विष्टुतियों) से होता है जो बार बार दुहराने के आधार पर बनी होती हैं। इन विधियों के विस्तार का वर्णन यहाँ अनावश्यक है। दक्षिणा-अग्निष्टोम कृत्य में दक्षिणा देने का वर्णन भी विस्तार से किया गया है। यजमान एवं उसके परिवार के ओढ़ने के परिधान में जो स्वर्ण खण्ड बँधा रहता है वह दक्षिणा के रूप में पुरोहितों को दिया जाता है। पुरोहितों को अन्य प्रकार की भेटें भी दी जाती हैं। आपस्तम्ब (१३।५।१-१३।७।१५) ने सोलह पुरोहितों की दक्षिणा का वर्णन विस्तार से किया है। दक्षिणा के रूप में ७, २१, ६०, १००, ११२ या १००० गायें हो सकती हैं या ज्येष्ठ पुत्र के भाग को छोड़कर सारी सम्पत्ति दी जा सकती है। जब एक सहस्र पशु या सारी सम्पत्ति दी जाती है तो उसके साथ एक खच्चर भी दिया जाता है (आप० १३।५।१-३)। बकरियां, भेड़ें, घोड़े, दास, हाथी, परिधान, रथ, गदहे तथा भौतिभांति के अन्न दिये जा सकते हैं । यजमान दक्षिणा के रूप में अपनी कन्या भी दे सकता है (दैव विवाह) । सारे पशु चार भागों में बाँटे जाते हैं। एक चौथाई भाग अध्वर्यु तथा उसके सहायकों को इस प्रकार दिया जाता है कि प्रतिप्रस्थाता, नेष्टा एवं उन्नेता को अध्वर्यु के भाग का क्रम मे आधा, तिहाई एवं चौथाई भाग मिले। सर्वप्रथम आग्नीध्र को दक्षिणा दी जाती है। उसे एक स्वर्ण-खण्ड, पूर्ण पात्र तथा सभी रंगों के सूत से बना एक तकिया दिया जाता है। प्रतिहर्ता नामक पुरोहित को सबसे अन्त में दक्षिणा मिलती है (आप० १३।६।२ एवं कात्या० १०।२।३९) अध्वर्यु एवं उसके सहायकों को दक्षिणा हविर्धान-स्थल में दी जाती है, किन्तु अन्य पुरोहितो को सदों के भीतर। अत्रि गोत्र के एक ब्राह्मण को (जो ऋत्विक् नहीं होता) सबसे पहले या आग्नीध्र के उपरान्त एक स्वर्ण-खण्ड दिया जाता है। आग्नीध्र के उपरान्त क्रम से ब्रह्मा, उद्गाता एवं होता की बारी आती है। इन पुरोहितों तथा ऋत्विकों के अतिरिक्त चमसाध्वर्युओं, सदस्यों तथा सदों में बैठे हुए दर्शकों को भी यथाशक्ति दान दिया जाता है। इन दर्शकों की प्रसर्पक संज्ञा है। किन्तु कण्व एवं कश्यप गोत्र वालों तथा उन लोगों को जो मांगते हैं, दक्षिणा का भाग नहीं मिलता (आप० १३१७१-५, कात्या० १०।२।३५) । साधारणतः अब्राह्मण को दान नहीं दिया जाता, किन्तु यदि वह वेदज्ञ हो तो उसे दिया जा सकता है, किन्तु वेदशानशून्य ब्राह्मण को दान नहीं दिया जाता। सोम क्या था ? यूरोपीय विद्वानों ने सोमयाग से सम्बन्धित बड़ी-बड़ी मनोरम कल्पनाएँ बना डाली हैं। किन्तु उनमें कोई तथ्य नहीं है। सोम-पूजा के आरम्भ के विषय में भारतीय धार्मिक पुस्तकें मूक हैं। ऋग्वेद के प्रणयन के पूर्व से सोम के सम्बन्ध की परम्पराएँ चली आ रही थीं। ऋग्वेद में सोम पौधे का चन्द्र से सम्बन्ध बताया गया है (ऋग्वेद १०८५।१ एवं २)। ऋग्वेद (५।५१।१५, १०।८५।१९, ८।९४४२, १०।१२।७ एवं १०।६८५१०) में चन्द्र को बहुधा 'मास्' या 'चन्द्रमस्' कहा गया है। ऋग्वेद में एक स्थान (८५२८1८) पर एक उपमा आयी है-“यो अप्सु चन्द्रमा इव मोमश्चमूषु ददृशे" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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