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________________ अग्निष्टोम मश इष्टि के उपरान्त किये जाने वाले सब कृत्य, यथा सोम को बढ़ाना, निह्नव, सुब्रह्मण्या स्तोत्र का पाठ प्रत्येक उपसद् में प्रातः एवं अपराह्न तीन दिन या अधिक दिनों तक किये जाते हैं। उपसद् में आज्यभागों, प्रयाजों, अनुयाजों की क्रियाएँ नहीं की जाती और न स्विष्टकृत् अग्नि ( आश्व रायन ४१८१८) को आहुति ही दी जाती है। प्रातःकाल ऋग्वेद के तीन मन्त्रों (७।१५।१-३) का पाठ तीन-तीन बार किया जाता है जिन्हें सामिषेनी कहा जाता है। इसी प्रकार सायंकाल ऋग्वेद (२।६।१-३) के मन्त्रों को पढ़ा जाता है। एक एक मन्त्र तीन बार पढ़ा जाता है और इस प्रकार तीन मन्त्रों के नौ उच्चारणों को सामिधेनी कहा जाता है। उपसद् की आहुति खुब से दी जाती है । उपसद् के मन्त्रों से पता चलता है कि वे लोहे, चाँदी एवं सोने के दुर्गा के घेरों की ओर संकेत करते हैं। ये मन्त्र यहाँ क्यों प्रयुक्त हुए हैं, कुछ कहना कठिन है । शतपथ ब्राह्मण ( ३०४१४१३ - ४ ) में नगरों पर घेरा डालने की चर्चा हुई है। महानेदिन एवं उपसद् कृत्यों के उपरान्त दूसरे दिन सोमयाग के लिए महावेदि (महावेदी) का निर्माण किया जाता है ( कात्यायन ८।३।६, शतपथ ७ ४, आप० ११।४ । १.१ ) । आहवनीयाग्नि के सम्मुख पूर्व ओर ६ प्रक्रम की दूरी पर एक खूंटी (शंकु) गाड़ी जाती है (बौधा० ६।२२), या कात्यायन (८।३।७ ) के मत से साधारण अग्निशाला के पूर्वी द्वार से पूर्व की ओर ३ प्रक्रम की दूरी पर अन्तःपात्म या शालामुखीय (बौधायन के मत से) नामक खूंटी गाड़ी जाती है। इस खूँटी से ३६ प्रक्रम पूर्व एक दूसरी खूंटी गाड़ी जाती है जिसे यूपावटीय (धूप वाले गड्ढे से सम्बन्धित ) कहा जाता है। इन दो खूंटियों को जोड़ने वाले सूत्र को पृष्ठ्या कहा जाता है। अन्तःपात्य नामक खूंटी के उत्तरी एवं दक्षिणी भाग में १५ प्रक्रमों की दूरी पर अन्य खूंटियाँ गाड़ी जाती हैं। यूपावटीय नामक खूंटी के दक्षिणी एवं उत्तरी सिरे से १२ प्रक्रमों की दूरी पर दो खूंटियाँ गाड़ी जाती हैं। इस प्रकार महावेदी का पश्चिमी भाग, जिसे श्रोणी कहा जाता है, ३० प्रक्रमों का ; पूर्वी भाग, जिसे अंस (कंधा) कहा जाता है, २४ प्रक्रमों का तथा महावेदी की लम्बाई ३६ प्रक्रमों की हो जाती है। महावेदी (महावेदि) के चारों ओर एक रस्सी बाँध दी जाती है। दर्शपूर्णमास में किये जानेवाले सभी संस्कार सोमयाग की महावेदी पर किये जाते हैं (सत्याषाढ ७१४, पृ० ६८५) । महावेदी के पूर्वी भाग में एक उत्तर aar का निर्माण होता है, जो चतुर्भुजाकार होती है। इसी प्रकार अन्य स्थल भी बनाये जाते हैं जिनका विवरण यहाँ आवश्यक नहीं है। दूसरे दिन प्रातःकाल प्रातः एवं सायं वाले प्रवयों एवं उपसदों के कृत्य सम्पादित कर दिये जाते हैं। प्रव के उढ़ासन के उपरान्त आहवनीयाग्नि से उत्तरवेदी तक लायी जाने वाली अग्नि का कृत्य किया जाता है, जिसे अग्निप्रणयन कहा जाता है। वेदी की नाभि पर रखी गयी अग्नि सोमयाग की आहवनीयाग्नि कही जाती है और मौलिक आहवनीयाग्नि गार्हपत्याग्नि का रूप धारण कर लेती है (आप० ११।५।९-१०) । कुश, समिधा एवं वेदी पर जल छिड़क दिया जाता है और सम्पूर्ण वेदी पर कुश बिछा दिये जाते हैं। कुश के अंकुर पूर्वाभिमुख रखे जाते हैं। अग्निशाला से जल द्वारा स्वच्छ की हुई दो गाड़ियाँ लाकर महावेदी पर रख दी जाती हैं, इन गाड़ियों को हविर्धान नाम दिया गया है, क्योंकि सोम (जो सोमयाग में हवि के रूप में लिया जाता है) इन पर रखा रहता है। दक्षिण दिशा वाली गाड़ी अध्वर्यु ५. आपस्तम्ब (५/४/३) की टीका के अनुसार एक प्रक्रम हो या तीन पदों के बराबर तथा एक पद १५ अंगुलों (बौधायन) या १२ अंगुलों (कात्यायन) के बराबर होता है। किन्तु कात्यायन (८|३|१४ ) की टीका के अनुसार एक पर दो प्रक्रमों के बराबर होता है। प्रक्रमों के अतिरिक्त यजमान के पदों से भी नाप लिया जा सकता है। तैतिरीय संहिता (६।२।४४५) में भी महावेदी का नाप दिया हुआ है- "त्रिशत्पदानि पश्चातिरश्ची भवति पत्रिात् प्राणी चतुविशतिः पुरस्तातिरश्ची।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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