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अग्निष्टोम यज्ञ
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पत्यानि पर तथा उसकी पत्नी के लिए दक्षिणाग्नि पर । यजमान एवं उसकी पत्नी को बहुत से अनिवार्य नियमों का पालन करना पड़ता है ( आप० १०।१६, कात्या० ४।१२।३४, बौबा० ६/६ ) ।
दीक्षा के दिन या दिनों के उपरान्त प्रथम कृत्य है प्रायणीय ( आरम्भ वाली ) इष्टि । इस इष्टि में ( चावल ) दूध में पकाकर अदिति को दिया जाता है तथा आज्य की चार आहुतियां अन्य चार देवताओं को दी जाती हैं। 'चार देवता है पथ्या स्वस्ति, अग्नि, सोम एवं सविता जो क्रम से पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर दिशा के माने जाते हैं।
इसके उपरान्त सोम का क्रय किया जाता है। कुत्स गोत्र वाले ब्राह्मण या किसी शूद्र से सोम प्राप्त किया जाता है । आप० (१०।२०।१२ ) ने किसी भी ब्राह्मण से खरीदने की बात कही है। जैमिनि ( ३।७।३१) ने सोम. के विक्रय के लिए पुरोहितों के अतिरिक्त किसी को भी उचित विक्रेता मान लिया है। क्रय के समय सोम को ब्राह्मण एवं सूत्र ग्रन्थों में राजा कहा गया है। सोम बेचनेवाले से सोम में लगा घास-फूस स्वच्छ कर देने को कह दिया आता है। सोम को स्वच्छ करते समय अध्वर्यु, उसके सहायक, यजमान तथा यजमान के पुत्र आदि उसे देख नहीं सकते और न स्वयं स्वच्छ ही कर सकते हैं (सत्याषाढ ७।१, पृ० ६०९) । बैल की लाल खाल के दक्षिणी भाग पर सोम रख दिया जाता है । सोमविक्रेता खाल के उत्तरी भाग पर बैठ जाता है। एक जलपात्र सोम के समक्ष रख दिया जाता है। इसके उपरान्त हिरण्यवती आहुति दी जाती है, जिसका वर्णन यहाँ अनपेक्षित है। यज्ञ भूमि के पूर्व द्वार के दक्षिण एक गाय खड़ी रहती है जिसे सोमक्रयणी कहा जाता है; यह एक, दो या तीन वर्ष की होती है। इसका रंग यथासम्भव सोम के समान ही होता है। इसी गाय को देकर सोम का क्रय होता है, अतः गाय को सोमक्रयणी कहते हैं (सोमः क्रीयते यया गवा सा सोमक्रयणी) । गाय को पिंगल होना चाहिए, उसकी आँखें पीत रंग से मिश्रित मूरी होनी चाहिए, वह अभी बियायी न हो, न तो वह विकलांग हो और न ही बँधी हुई । उसका कान या पैर पकड़कर कोई खड़ा न हो, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर उसकी गर्दन पकड़ी जा सकती है। इसी प्रकार इस सोमक्रयणी गाय के साथ अन्य कृत्य किये जाते हैं। इसके उपरान्त अध्वर्यु यजमान के नौकर द्वारा सोम को ढकने के लिए कपड़ा मंगवाता है। चार पहियों वाली गाड़ी में सोम चटाइयों से ढका रखा रहता है। सोम के अंशु या डण्ठल किस प्रकार चुने जाते हैं, हाथ में लिये जाते हैं, वस्त्र से ढके जाते हैं; आदि के विषय में बहुत-से नियम हैं ( आप० १० १२४/७ - १४, कात्या० ७७१२-२१) । यजमान सोम का अभिवादन करता है और अदिति की पूजा करता है (आप० १०।२५।१) । इसके उपरान्त अध्वर्यु बँधा हुआ सोमसोम-विक्रेता को दे देता है और दोनों में क्रय-विक्रय सम्बन्धी एक नाटक चलता है। सोम-विक्रेता को स्वर्ण भी दिया जाता है। शतपथब्राह्मण (३1३1३), आपस्तम्ब ( १०।२५ ३१-१६), कात्यायन ( ७८/१-२० ) एवं सत्यावाढ (७/२, पृ० ६३६-६४३ ) में लेन-देन से सम्बन्धित बहुत-सी बातों का वर्णन पाया जाता है। सोमऋयणी को गौशाला में भेज दिया जाता है और उसके बदले अन्य गाय दी जाती है। आपस्तम्ब (१०।२७१८) एवं सत्याषाढ (७/२, पृ० ६४४) ने लिखा है कि सोम-विक्रेता को ढेलों एवं छड़ियों से मारने का नाटक किया जाता है, इसके उपरान्त सुब्रह्मण्या कृत्य किया जाता है जिसे उद्गाता पुरोहित का सहायक सुब्रह्मण्य नामक पुरोहित करता है । सोम को गाड़ी में विशिष्ट कृत्यों के साथ लाया जाता है । सोम को राजा की उपाधि से सम्बोधित किया जाता है। उसके स्वागत
४. कुछ सूत्रों (आप० १० १४८, १०/१५/४, आश्व० ४।२।१३-१५) के आधार पर बीका कार्य १२ दिनों या एक मास या एक वर्ष तक चलता है और इस प्रकार यजमान डुबला हो जाता है। ऐसी स्थिति में यजमान यश के लिए अन्य सामान, मन आदि अपने सनीहारों (सहायकों) द्वारा एकत्र कराता है।
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