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अध्याय ३३
अग्निष्टोमा
कभी-कभी सुविधा के लिए यज्ञ तीन विभागों में विभाजित कर दिये जाते हैं, यथा-इष्टि, पशु एवं सोम । गौतम (८२१) एवं लाट्यायन श्री० (५।४।३४) के अनुसार सोमयज्ञ के सात प्रकार हैं--अग्निष्टोम, अत्यंग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र एवं अप्तोर्याम। अग्निष्टोम को सोमयज्ञों का आदर्श रूप मान लिया गया है। अग्निष्टोम ऐकाहिक या एकाह अर्थात् एक दिन वाला यज्ञ है और यह ज्योतिष्टोम का ऐसा अन्तर्हित भाग है कि दोनों को कभी-यभी एक ही माना जाता है। सोमयज्ञ कई प्रकार के हैं, यथा एकाह (एक दिन वाला), अहीन (एक दिन से लेकर बारह दिनों तक चलने वाला) तथा सत्र (जो बारह दिनों से अधिक दिनों तक चलता है)। पावशाह नामक यज्ञ सत्र एवं अहीन है (जैमिनि १०।६।६०-६१ एवं तन्त्रवार्तिक २।२।२)। ज्योतिष्टोम में बहुधा पांच दिन लग जाते हैं, इसके मुख्य कृत्य ये हैं—पहले दिन पुरोहितों का वरण, मधुपर्क, दीक्षणीयेष्टि एवं दीक्षा, दूसरे दिन-प्रायणीया इष्टि (आरम्भ वाली इष्टि), सोम का क्रय, आतिथेयेष्टि (सोम को आतिथ्य देने वाली इष्टि), प्रवर्य एवं उपसद् (प्रातः एवं सायं का अभिवादन), तीसरे दिन-प्रवर्य एवं दो बार उपसद्, चौथे दिन-प्रवर्य एवं उपसद्, अग्निप्रणयन, अग्नीषोमप्रणयन, हविर्धान प्रणयन एवं पशुयज्ञ, तथा पांचवें दिन अर्थात् सुत्य या सवनीय के दिन--सोम को पेरना (रस निकालना), प्रातः काल पूजा में चढ़ाना एवं पीना तथा दोपहर एवं सायं देवार्पण एवं पीना, उदयनीया (अन्तिम इष्टि) एवं अवभृथ (अन्तिम शुद्ध करने वाला स्नान)। प्रमुख श्रौत सूत्रों के आधार पर हम नीचे बहुत ही संक्षेप में अग्निष्टोम का वर्णन उपस्थित करेंगे।
जैमिनि (६।२।३१) के मतानुसार तीनों वर्गों के लिए ज्योतिष्टोम करना अनिवार्य है। इसका ‘अग्निष्टोम' नाम इसलिए पड़ा है कि इसमें अग्नि की स्तुति की जाती है और अन्तिम स्तोत्र अग्नि को ही सम्बोधित है (ऐतरेय ब्राह्मण १४१५, आपस्तम्ब १०।२।३)। यह प्रति वर्ष वसन्त में अमावस्या या पूर्णिमा के दिन किया जाता है (आपस्तम्ब १०१२५ एवं ६, कात्यायन ७।११४ एवं सत्याषाढ ७१)। जैमिनि (४।३।३७) में आया है कि दर्शपूर्णमास , चातुर्मास्य एवं पशु-यज्ञ सम्पादित करने के उपरान्त ही सोमयज्ञ किया जाना चाहिए, किन्तु कुछ अन्य लोगों का मत है कि दर्शपूर्णमास के पूर्व भी यह किया जा सकता है, परन्तु अग्न्याधान के उपरान्त ही ऐसा करना उचित है (आश्व० ४।१।१-२ एवं सत्याषाढ ७।१, पृ० ५५६)।
इस यज्ञ का अभिलाषी सर्वप्रथम सोमप्रवाक (सोम यज्ञ कराने वाले के निमन्त्रणकर्ता) को वेदज्ञ ब्राह्मणों को (जो न तो अति वृद्ध हों और न कम अवस्था के हों और न हों विकलांग) बुलाने के लिए भेजता है (ताण्ड्य
१. देखिए तैत्तिरीय संहिता १२२-४, ३१-३, ६६१-६ एवं ७१; तैत्तिरीय ब्राह्मण १।१३१, १४१ एवं ५-६, ११५६४, २१२१८; शतपथब्राह्मण ३-४; ऐतरेयब्राह्मण १-१५; आपस्तम्ब १०-१३ एवं १४०८-१२ कात्यायन ७-११, बौधायन, ६-१०; आश्वलायन ४-६; सत्याषाढ ७-९; लाट्यायन श्रौतसूत्र १-२ ।
पर्य०६९
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