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धर्मशास्त्र का इतिहास (कात्या० ४।१४।१), किन्तु आप० (६।३।११-१४) ने ऐसा प्रतिबन्ध नहीं रखा है। बौधा० (३॥४) के मत से गाय दुहने वाला ब्राह्मण ही होना चाहिए। गाय दुहने के विषय में भी बहुत-से नियम बने हैं (शतपथ ब्रा० ३१७, ० मा० २।१।८) । सूर्यास्त होते ही दुहना चाहिए (आप० ६।४।५) । किसी आर्य द्वारा निर्मित मिट्टी के बरतन में ही दूध दुहा जाना चाहिए। पात्र चक्र पर नहीं बना रहना चाहिए। उसका मुंह बड़ा तथा घेरा वृत्ताकार या ढालू नहीं होना चाहिए, बल्कि सीधा.खड़ा (कात्या० ४१४११, आप० ६।३।७)। इसको अग्निहोत्रस्थाली कहा जाता है (आप०६। ३२१५)। अध्वर्यु गार्हपत्याग्नि से जलती हुई अग्नि लेकर (दूध उबालने के लिए) उसके उत्तर अलग स्थल पर रखता है। तब वह गाय के पास जाकर दूधपात्र को उठाकर आहवनीयाग्नि के पूर्व रखकर गार्हपत्याग्नि के पश्चिम में बैठता है और पात्र को गर्म करता है। वह अतिरिक्त दर्भ लेकर उसे जलाकर दूध के ऊपर प्रकाश करता है। तब वह मुव से जल की कुछ बूंदें खोलते हुए दूध में छिड़कता है (आश्व० २।३।३ एवं ५)। इसके उपरान्त वह पुनः प्रयुक्त दर्भ को जलाकर गर्म दूध के ऊपर प्रकाश करता है। यह तोन बार किया जाता है। दूध को खौला देना चाहिए कि केवल गर्म कर देना चाहिए, इस विषय में मतैक्य नहीं है । इसके उपरान्त तीन मन्त्रों के साथ दूध का पात्र धीरे-से उतार लिया जाता हैं और जलती अग्नि के उत्तर रख दिया जाता है। तब जलती हुई बची अग्नि गार्हपत्याग्नि में डाल दी जाती है। इसके उपरान्त स्रुव एवं स्रुक् को हाथ से झाड़-पोंछकर गार्हपत्याग्नि पर गर्म कर लिया जाता है। यही क्रिया पुनः की जाती है और यजमान से पूछा जाता है-"क्या मैं खुव से दूध निकाल सकता हूँ?" यजमान कहता है-"हाँ, निकालिए," तब अध्वर्युदाहिने हाथ में स्रुव ले तथा बायें हाथ में अग्निहोत्र-हवणी लेकर उसमें दूध के पात्र से दूध निकालता है। यह कृत्य चार बार किया जाता है और स्रुव दूध के पात्र में ही छोड़ दिया जाता है। आपस्तम्ब (६७७-८) एवं आश्व० (२।३।१३-१४) के मतानुसार अध्वर्यु गृहस्थ का अभिमत जानते हुए स्रुव से भरपूर दूध निकालता है, क्योंकि ऐसा करने से गृहस्थ को सबसे योग्य पुत्र लाभ की बात होती है, जितना ही कम दूध खुव में होता जायगा उसी अनुपात में अन्य पुत्रों के लाभ की बात मानी जायगी। इसके उपरान्त अध्वर्यु एक हाथ लम्बा पलाश-दण्ड स्रुवदण्ड के ऊपर रखकर गार्ह पत्याग्नि की ज्वाला के पास रखता है और स्रुव को अपनी नाक के बराबर ऊँचा रखकर आहवनीय तक ले जाता है; गार्हपत्य एवं आहवनीय की दूरी के बीच में वह स्रुव को अपनी नाभि तक लाता है, और पुनः मुख की ऊँचाई तक उठाकर आह वनीय के पास पहुँचता है और उसके पश्चिम स्रुव तथा पलाश-दण्ड की समिधा को दर्भ पर रखता है। वह स्वयं पूर्वाभिमुख हो आहवनीय की उत्तर-पूर्व दिशा में बैठता है। उसके घुटने मुड़े रहते हैं, बायें हाथ में खुव एवं दाहिने में समिधा लेकर वह आंहवनीयाग्नि में 'रजतां त्वाग्निज्योतिषम्' (आश्व० २।३।१५) मन्त्र के साथ आहुति देता है। इसके उपरान्त वह 'विद्युदसि विद्या मे पाप्मानम्' (आप० ६।९।३, आश्व० २७।१६) मन्त्र के साथ आचमन करता है। जब डाली हुई समिधा जलने लगती है तो वह 'ओं भूर्भुवः स्वरोम्, अग्नियॊतियॊतिरग्निः स्वाहा' नामक मन्त्र के साथ समिधा पर दूध की आहुति छोड़ता है। मन्त्रों के प्रयोग के विषय में कई मत हैं। इस विषय में देखिए वाजसनेयी संहिता (३।९), आप० (६।१०।३), तै० ब्रा० (२।१।२) । इसके उपरान्त वह खुद को कुश पर रख देता है और गार्ह पत्याग्नि की ओर इस विचार के साथ देखता है--"मुझे पशु दीजिए।" पुनः वह स्रुव उठाता है और पहले से दूनी मात्रा में दूध की दूसरी आहुति देता है। इस बार मौन साधकर प्रजापति का ध्यान करके आहुति दी जाती है। यह दूसरी आहुति प्रथम आहुति के पूर्व या उत्तर में इस प्रकार दी जाती है कि दोनों में किसी प्रकार का सम्बन्ध न होने पाये। इसके उपराश स्रुव में दूसरी आहुति वाले दूध से अधिक दूध लिया जाता है। तब वह मुक् को दो बार (आप० ६।११।३ के अनुसार तीन बार) इस प्रकार उठाता है कि अग्नि-ज्वाला उत्तर ओर घूम उठे और ऐसा करके उक् को कूर्च पर रख देता है। इसके उपरान्त वह स्रुव के मुख को नीचे कर हाथ से रगड़कर स्वच्छ कर देता है और पुनः कुर्च (उत्तर वाले कुशों की नोक) की उत्तर दिशा में अपने हाथ पर लगे दूध की बूंदें पोंछकर स्वच्छ कर लेता है और “देवताओं को
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