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________________ ५१८ धर्मशास्त्र का इतिहास शतपथ ब्राह्मण ने लिखा है, मृत्यु तक करना पड़ता है। सत्याषाढ (३१) के मत से प्रत्येक द्विज के लिए तीनों वैदिक अग्नियों की स्थापना के उपरान्त अग्निहोत्र एवं दर्शपूर्णमास नामक यज्ञ करना अनिवार्य है, यहाँ तक कि रथकारों तथा निषादों को भी ऐसा करना चाहिए, किन्तु इस अन्तिम नाम पर अन्य सूत्रकारों ने अपनी सहमति नहीं दी है। जैमिनि (६।३।१-७ एवं ८-१०) के मत से अग्निहोत्र अनिवार्य है, अतः वे लोग भी जो सम्पूर्ण विस्तार के साथ इसे सम्पादित नहीं कर सकते, इसे कर सकते हैं, किन्तु उन लोगों को जो किसी इच्छा की पूर्ति के लिए इसे करना चाहते हैं, इसे सम्पूर्णता के साथ सम्पादित करना चाहिए। बहुत-से सूत्रों में मन्त्रों एवं विस्तार के विषय में मतभेद पाया जाता है। कुछ लोगों के मत से गृहस्थ को सभी वैदिक अग्नियाँ प्रज्वलित रखनी चाहिए (कात्या० ४।१३।५), कुछ लोगों के अनुसार केवल गार्हपत्याग्नि को ही सतत रखना चाहिए (आप० ६।२।१२), किन्तु कुछ लोगों के मत से यदि अग्न्याघेय के समय दक्षिणाग्नि अरणि-मन्थन से उत्पन्न कर स्थापित की गयी हो तो उसे सदा के लिए रखना चाहिए। गृहस्थ अध्वर्यु द्वारा गार्हपत्याग्नि से आहवनीयाग्नि मँगाता है और अध्वर्यु यह कार्य प्रातः एवं सायं करता है। किन्तु यदि यजमान यह कार्य प्रति दिन करता है तो उसे अध्वर्यु की कोई आवश्यकता नहीं है। आश्व० (२।२।१) के मत से प्रति दिन के अग्निहोत्र में दक्षिणाग्नि कई प्रकार से प्राप्त की जा सकती है, यथा बैश्य के घर से या किसी धनिक के घर से या घर्षण से, या स्वयं सतत रूप में प्रज्वलित रखी जा सकती है। अन्य विस्तार के लिए देखिए आश्व० (२।२।३ एवं ६), आप० (६।११७), बौधा० (३।४)। __गृहस्थ को प्रज्वलित गार्हपत्याग्नि से एक बरतन में जलते हुए अंगार लेकर आहवनीयाग्नि के पास मन्त्रोच्चारण (देवं त्वा देवेभ्यः श्रिया उद्धरामि) के साथ जाना चाहिए और पूर्व की ओर जाते समय अन्य मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए, यथा "मुझे पाप से ऊपर उठाइए....जो भी पाप मैंने जान-अनजान में किये हों, उनसे बचाइए।" दिन के पापों के लिए सायंकाल में तथा रात्रि के पापों के लिए प्रातःकाल में प्रार्थना की जाती है। प्रातः एवं सायं सूर्याभिमुख होकर अग्निहोत्र किया जाता है। कात्या० (४।१३।३) के अनुसार प्रातःकाल का अग्निहोत्र सूर्योदय के तथा सायंकाल का सूर्यास्त के पूर्व हो जाना चाहिए, किन्तु आश्वलायन के मत से अग्निहोत्र उदयास्त के उपरान्त ही करना चाहिए। इस विषय में प्राचीन काल से ही दो मत चले आ रहे हैं। कुछ लोगों ने सूर्योदय के पूर्व और कुछ लोगों ने सूर्योदय के उपरान्त अग्निहोत्र करने की व्यवस्था दी है । ऐतरेय ब्राह्मण (२४।४।६) एवं कौषीतकिब्राह्मण (२।९) भी इस विषय में अवलोकनीय हैं। आप० (६।४।७-९) ने इस विषय में चार मतों का उद्घाटन किया है। अग्निहोत्र प्रातः एवं. सायं अर्थात् रात्रि एवं दिन के संधिकाल में करना चाहिए, या तब जब प्रथम तारा आकाश में दिखाई पड़े, या रात्रि के प्रथम या द्वितीय प्रहर में, या प्रातः जब सूर्य के मण्डल का एक अंश दिखाई पड़े या जब सूर्य ऊपर आ चुवा हो। गृहस्थ को सन्ध्या-पूजा के उपरान्त ही अग्निहोत्र करना ताहिए। गृह्याग्नि में होम अग्निहोत्र के पूर्व होना चाहिए कि उसके ६. तै० ब्रा० (२।११२) में अग्निहोत्र शब्द की व्युत्पत्ति की गयी है। यह वह कृत्य है जिसमें आग्न के लिए होम किया जाता है। सायण का कहना है-अग्नये होत्रं होमोऽस्मिन्कर्मणि इति बहुव्रीहिव्युत्पत्त्याऽग्निहोत्रमिति कर्मनाम। अग्नये होत्रमिति तत्पुरुषव्युत्पत्त्या हविर्नाम। देखिए जोमनि (१।४।४), जिसमें आया है-"अग्निहोत्रं जुहोति स्वर्गकामः", यहाँ ‘अग्निहोत्रं' एक कृत्य का नाम है। शतपथ ब्राह्मण (१२।४।१।१) में आया है- दीर्घसत्रं ह वा एत उपयन्ति येऽग्निहोत्रं जुह्वत्येतद्वै जरामयं सत्रं यदग्निहोत्रं जरया वाव होवास्मान्मुच्यते मृत्युना वा।" सत्याषात (३॥१) का कहना है--"आधानादग्निहोत्रं दर्शपूर्णमासौ च नियतौ। निषादरथकारयोराधानादग्निहोत्रं दर्शपूर्णमासौ च नियम्येते।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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