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________________ ५१६ धर्मशास्त्र का इतिहास बने स्थल के उत्तर बाँध रखी जाती है। उस रात्रि में यजमान मौन रहता है और अन्य लोग उसे बाँसुरी-वीणा आदि बजाकरजगाये रखते हैं (विकल्प भी है, वह मौन तथा जगा नहीं भी रह सकता है)। यजमान रात्रि भर जागकर ब्राह्मौनिक अग्नि में लकड़ियाँ डाला करता है। यदि वह रात्रि भर जागना न चाहे तो एक बार ही बहुत-सी लकड़ियाँ डाल देता है। प्रातःकाल अध्वर्यु अग्नि में दो अरणियाँ गर्म करता है और मन्त्रोच्चारण करता है ( तै० ब्रा० १।२।१९ ) । इसके उपरान्त ब्राह्मौदनिक अग्नि बुझा दी जाती है और दोनों अरणियों का आवाहन किया जाता है। अध्वर्यु उन्हें यजमान को दे देता है। यह सब मन्त्रोच्चारण के साथ होता है। इसके उपरान्त अध्वर्यु गार्हपत्य अग्नि के लिए स्थल की व्यवस्था करता है और उस पर जल छिड़कता है। यही क्रिया वह दक्षिणाग्नि (दक्षिण-पश्चिम दिशा में ), आहवनीय, सभ्य एवं सध्य नामक अग्नियों के स्थलों (आयतनों) के लिए करता है । सम्भारों (सामग्रियों) के साथ आनीत बालू • भाग का एक भाग गार्हपत्य तथा दूसरा भाग दक्षिणाग्नि के स्थलों पर बिखेर दिया जाता है। शेष बालू को तीन भागों में कर आहवनीय, सभ्य तथा आवसथ्य नामक अग्नियों के स्थलों में बिखेर दिया जाता है। यदि सभ्य एवं आवसथ्य अग्नियों को जलाना न 'तो बालू को आहवनीयाग्नि के स्थल पर रख दिया जाता है। इसी प्रकार अन्य सामग्रियाँ ( सम्भार) अग्नियों के स्थलों पर रख दी जाती हैं। इन कृत्यों के साथ यथोचित मन्त्रों का उच्चारण भी होता रहता है। विभिन्न स्थलों पर चूने के प्रस्तरखण्डों एवं ढेलों को रखकर वह अपने शत्रु का स्मरण करता 1 ब्राह्मौदनिक अग्नि की राख को हटाकर वह वहाँ दोनों अरणियों को रखकर घर्षण से अग्नि उत्पन्न करता है। जब सूर्य पूर्व में निकलने को रहता है, उसके पूर्व ही वह ऊपर की अरणी को नीचे रख देता है और 'दश होतृ' नामक सूक्त पढ़ता है । घर्षण से अग्नि प्रज्वलित करते समय एक श्वेत या लाल घोड़ा (जिसकी आँखों से पानी न गिरता हो, जिसके घुटने काले हों या जिसके अण्डकोष पूर्णरूपेण विकसित हों) उपस्थित रहना चाहिए। उस समय 'शक्तिसांकृति' का गान होता है। जब धूम निकलता है तो गाथिन कौशिक साम गाया जाता है और 'अरण्योर्निहितो' (ऋ० ३।२९।२) का उच्चारण किया जाता है। अग्नि प्रज्वलित होते ही अध्वर्यु 'उपावरोह जातवेद:' ( तै० ब्रा० २।५१८ ) नामक मन्त्र का उच्चारण कर अग्नि का आह्वान करता है। इसके उपरान्त अध्वर्यु यजमान से 'चतुर्होतृ' ( तै० आ० ३।१-५) नामक मन्त्र पढ़वाता है । अग्नि उत्पन्न हो जाने के उपरान्त यजमान अध्वर्यु को गाय की दक्षिणा देता है । यजमान अग्नि के ऊपर साँस लेता है और 'प्रजापतिस्त्वा' कहता है ( तै० सं० ४।२।९।१ ) । अध्वर्यु अपने जुड़े हाथों को नीचे झुकाकर अग्नि के ऊपर रखता है और लकड़ियों से उसे और प्रज्वलित करता है ( तै० सं० ४|३|६| २ ) । उस समय ' रथन्तर' एवं 'यज्ञायशिय' नामक सामों का गान होता रहता है और अध्वर्यु सम्भारों पर गार्हपत्य अग्नि प्रतिष्ठापित करता है । यजमान के गोत्र एवं प्रवर के अनुसार मन्त्रपाठ किया जाता है। 'धर्मशिरस' के मन्त्रों का भी पाठ किया जाता है। आहवनीय अग्नि की प्रतिष्ठा पूर्व दिशा में सूर्य के आधे बिम्ब के निकलते-निकलते कर दी जाती है । अध्वर्यु गार्हपत्य पर वैसी लकड़ियाँ जलाता है, जिन्हें वह आगे ले जाता है। उन्हें वह बालू से भरे बरतन में ही रखकर ले जाता है और यजमान से 'अग्नितनु सूक्त का पाठ कराता है। इसके उपरान्त अग्नि को आहवनीय के स्थल पर रखवाता है। इसके पश्चात् आग्नीध्र पुरोहित गृह्याग्नि लाता है या घर्षण से उत्पन्न करता है और घुटनों को उठाकर बैठता है तथा दक्षिणाग्नि की प्रतिष्ठा करता है। उस समय यज्ञायज्ञिय साम का गायन होता रहता है। अनेक सूक्तों के पाठ के उपरान्त दक्षिणाग्नि सम्भारों पर रख दी जाती है (आप० ५।१३३८ ) । दक्षिणाग्नि की प्रतिष्ठा के लिए अग्नि किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के गृह से ली जाती है, किन्तु यदि यजमान समृद्धि का इच्छुक है तो जिसके घर से वह अग्नि लायी जाती है उसे समृद्धिशाली होना चाहिए। अग्नि लाने के उपरान्त यजमान उस घर में फिर कभी भोजन नहीं कर सकता। बौधायन ( २०१७ ) के अनुसार अग्नि गार्हपत्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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