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धर्मशास्त्र का इतिहास
प्रायश्चित्तनिर्णय में नागेश ने व्यासकृत संन्यासपद्धति के अनुसार एक विलक्षण उक्ति यह दी है कि जब कलियुग के ४४०० वर्ष बीत जायँ (१२९९ ई० के उपरान्त) तो समझदार ब्राह्मण को संन्यास नहीं धारण करना चाहिए। लगता है, तब तक मुसलिम आक्रामकों ने संन्यासियों पर अपने आक्रमण आरम्भ कर दिये थे, और तभी धर्मशास्त्रकारों ने संन्यासियों को नियमविरुद्ध चलते देखकर तथा उन पर कट्टर मुसलमानों के आक्रमण होते देखकर उपर्युक्त उद्धरण प्रचारित किया। निर्णयसिन्धु (३, पूर्वार्ध, अन्तिम) ने भी व्यास की उपर्युक्त उक्ति दोहरायी है और कहा है कि संन्यास-सम्बन्धी वर्जना केवल त्रिदण्डी संन्यासियों के लिए है।
संन्यास की विधि संन्यास-विधि का वर्णन बौधायनधर्मसूत्र (२।१०।११-३०), बौधायनगृह्यशेषसूत्र (४।१६), वैखानस (९।६-८) में हुआ है। सम्भवतः बौधा० धर्म० का वर्णन सबसे प्राचीन है। स्थानाभाव के कारण हम यहाँ विधि का विस्तार उपस्थित नहीं करेंगे। जो भी विधि की जाती है, उसका तात्पर्य है भौतिक सम्बन्धों का त्याग, सांसारिक एवं पृथिवी-सम्बन्धी धन के प्रति घृणा, अहिंसामय जीवन, ब्रह्म का चिन्तन एवं उसकी स्वानुभूति करना। सिर, दाढ़ी तथा शरीर के सभी अंगों के बाल बनवाकर, तीन दंडों को एक में जोड़कर, एक वस्त्र-खण्ड (जल छानने के लिए), एक कमण्डलु एवं एक भिक्षा-पात्र लेकर व्यक्ति जप-ध्यान . कृत्यों में संलग्न होता है।
मध्य काल के ग्रन्थों में, विशेषतः स्मृत्यर्थसार (पृ० ९६-९७), स्मृतिमुक्ताफल (पृ० १७७-१८२), यतिधर्मसंग्रह (पृ० १०-२२), निर्णयसिन्धु (३, उत्तरार्ध, पृ० ६२८-६३२), धर्मसिन्धु ने संन्यास-विधि पर विशद रूप से प्रकाश डाला है। ऐसे कई ग्रन्थों एवं पद्धतियों ने संन्यास-सम्बन्धी 'ब्रह्मानन्दी' नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो अभी तक अप्राप्य है।
आतुर-संन्यास जाबालोपनिषद् (५) ने उन लोगों के संन्यास का भी वर्णन किया है, जो रोगी हैं या मरणासन्न हैं। ऐसे लोगों के लिए विस्तृत विवि या कृत्यों की कोई आवश्यकता नहीं है, केवल शब्दों द्वारा उद्घोष एवं मनः संकल्प ही पर्याप्त है। स्मृतिमुक्ताफल (पृ० १७४ एवं १८२) में उद्धृत अंगिरा एवं सुमन्तु का कहना है-“जब व्यक्ति बुढ़ापे से जीर्ण-शीर्ण हो गया हो, शत्रुओं से बहुत कष्ट पा रहा हो या किसी असाध्य रोग से पीड़ित हो, तो वह केवल 'प्रेष' मन्त्र का उच्चारण करके संन्यासी हो सकता है", अर्थात् उसके लिए विस्तारपूर्ण विधि की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए, जो मृत्यु के द्वार पर खड़े हैं, केवल संकल्प, प्रेष (यथा “मैंने सब कुछ त्याग दिया है" जो व्याहृतियों के साथ कहा जाता है) एवं अहिंसा के लिए प्रण कर लेना ही यथेष्ट है, अन्य कृत्य परिस्थितियों के अनुसार किये या नहीं भी किये जा सकते हैं। आजकल ऐसे संन्यास (आतुर संन्यास) में धार्मिक व्यक्ति बहुधा प्रवृत्त होते हैं और संकल्प, क्षौर (सिर आदि का मुण्डन), सावित्रीप्रवेश एवं प्रेषोच्चार नामक कृत्य ही पर्याप्त मान लिये जाते हैं।
संन्यास तथा शिखा एवं यज्ञोपवीत (जनेऊ) क्या संन्यासी को अपनी शिखा एवं जनेऊ का त्याग कर देना चाहिए? इस विषय में प्राचीन काल से ही मत
तस्यापवादमाह स एव । पाववर्णविभागोऽस्ति यावदः प्रवर्तते। तावन्यासोऽग्निहोत्रं च कर्तव्यं तु कलौ युगे।इति । स्मृतिमुक्ताफल, पृ० १७६ (वर्णाश्रम), यतिधर्मसंग्रह, पृ० २-३।
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