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________________ दान के प्रकार आदित्यपुराण एवं मत्स्यपुराण को उद्धृत कर लिखा है कि भूदान से उच्च फलों की प्राप्ति होती है। वनपर्व (९३॥ ७८-७९) ने लिखा है कि राजा शासन करते समय जो भी पाप करता है, उसे यज्ञ एवं दान करके, ब्राह्मणों को भूमि एवं महस्रों गायें देकर नष्ट कर देता है। जिस प्रकार चन्द्र राहु से छुटकारा पाता है, उसी प्रकार राजा मी पापमुक्त हो जाता है। अनुशासनपर्व (५९१५) में कहा है--सोने, गायों एवं भूमि के दान से दुष्ट व्यक्ति छुटकारा पा भूमि-दान की महत्ता के कारण स्मृतियों ने इसके विषय में बहुत-से नियम बनाये हैं। याज्ञवल्क्य (११३१८३२०) ने लिखा है--"जब राजा भू-दान या निबन्ध-दान (निश्चित दान जो प्रति वर्ष या प्रति मास या विशिष्ट अवसरों पर किया जाता है) करे तो उसे आगामी भद्र (अच्छे) राजाओं के लिए लिखित आदेश छोड़ने चाहिए। राजा को चाहिए कि वह अपनी मुद्रा को किसी वस्त्र-खण्ड या ताम्रपत्र के ऊपर चिह्नित कर दे और नीचे अपना तथा पूर्वजों का नाम अंकित कर दे और दान का परिमाण एवं उन स्मृतियों की उक्तियाँ लिख दे जो दिये हुए दान के लौटा लेने पर (दाता की) भर्त्सना करती हैं।"" याज्ञवल्क्य के सबसे प्राचीन टीकाकार विश्वरूप ने लिखा है कि दान-पत्र पर आज्ञा, दूतक आदि राजकर्मचारियों एवं राजसेना के ठहराव के स्थल आदि के नाम भी अंकित होने चाहिए, स्त्रियों (रानी या राजमाता) के नाम भी उल्लिखित होने चाहिए और होनी चाहिए चर्चा उन कुफलों की जो दान लौटा लेने से प्राप्त होते हैं। इसी विषय पर अपरार्क (पृ० ५७९-५८०) ने बृहस्पति एवं व्यास को उद्धृत किया है। यदि हम अब तक के प्राप्त सहस्रों शिलालेखों या दान-पत्रों का अवलोकन करें तो पता चलता है कि स्मृतियों की उपर्युक्त उक्तियों का अक्षरशः पालन होता रहा है, विशेषतः पांचवीं शताब्दी से याज्ञवल्क्य, बृहस्पति एवं व्यास आदि की उक्तियों के अनुसार ही दान-पत्र लिखे जाते रहे हैं। अत्यन्त प्राचीन शिलालेखों में दान-फल एवं दान देकर लोटा लेने के विषय में कुछ नही पाया जाता (देखिए गुप्त इंस्क्रिप्शंस, संख्या ८, पृ० ३६, जहाँ केवल इतना ही आया है अनुशासन (६२।१९), बृहस्पति (७), भविष्यपुराण (४।१६४।१८) । याज्ञवल्क्य (१।२१०) को टीका में मिताक्षरा ने इसे मनु की उक्ति माना है और द्वितीय पाद को 'ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा' लिखा है। बृहस्पति ने 'गोचर्म' को १० निवर्तनों के समान तथा एक निवर्तन को ३० लट्ठों के समान तथा एक लट्ठे को १० हाथों के समान माना है। दशहस्तेन दण्डेन त्रिंशद्दपनिवर्तनम् । दश तान्येव विस्तारो गोचर्मतन्महाफलम् ॥ बृहस्पति (८)। गृहस्पति (९) ने गोचर्म की एक अन्य परिभाषा को है-गोचर्म उसे कहते हैं, जहाँ एक सहस्र गायें अपने बछड़ों एवं साड़ के साथ स्वतन्त्र रूप से खड़ी रहती हैं-'सवृषं गोसहस्र तु यत्र तिष्ठत्यतन्द्रितम्। बालवत्साप्रसूतानां तद् गोचर्म इति स्मृतम् ॥' गोचर्म की अन्य परिभाषाओं के लिए देखिए पराशर (१२।४९), विष्णुधर्मसूत्र (५।१८१), अपरार्क (पृ. १२२५), हेमाद्रि (प्रतखण्ड भाग १, प.० ५२-५३)। कौटिल्य (२।२०) ने एक दण्ड को चार अरलियों के बराबर, दस वण्डों को एक रज्ज़ के बराबर तथा तीन रन्जुओं को एक निवर्तन के बराबर माना है। निवर्तन शम्ब नासिक शिलालेख (संख्या ५-एपिग्रंफिया इण्डिका, जिल्द ८, पृ० ७३) एवं पल्लवों के राजा शिवस्कन्द धर्मा (एपि फिया इण्डिका, जिल्द १, पृष्ठ ६) के शिलालेख में आया है। इस प्रकार को व्याख्या के लिए द्रष्टम्य एपिफिया इण्डिका, जिल्द ११, पृ० २८० । १५. दत्त्वा भूमि निबन्धं वा कृत्वा लेख्यं तु कारयेत्। आगामिभद्रनुपतिपरिज्ञानाय पार्थिवः॥ पटे वा तामपट्टे वा स्वमुद्रोपरिचिह्नितम् । अभिलेख्यात्मनो वंश्यानात्मानं च महीपतिः। प्रतिग्रहपरीमाणं बानच्छेदोपवर्गनम् । स्वहस्तकालसम्पन्नं शासनं काग्येस्थिरम् ॥ याज्ञवल्क्य (११३१८-३२०)। धर्मः ५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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