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दान के प्रकार
देवपूजा के समय दक्षिणा देना अनिवार्य नहीं माना है। दक्षिणा सोने के रूप में ही दी जाती थी, किन्तु सोने के दान में चांदी की दक्षिणा दी जा सकती थी। बहुमूल्य वस्तु के दान में, यथा तुलापुरुष दान में दक्षिणा एक सौ या पचास या पचीस या दस निष्कों की या दान की हुई वस्तु का एक-दसवाँ भाग या सामर्थ्य के अनुसार हो सकती है।
दान के देवता-बहुत से पदार्थों के देवता होते हैं । हेमाद्रि (दान, पृ० ९६-९७) एवं दानमयूख (पृ० ११-१२) ने विष्णुधर्मोत्तर को उद्धृत कर दान-पदार्थ के देवताओं के नाम लिये हैं, यथा सोने के देवता हैं अग्नि, दास के प्रजापति, गायों के रुद्र आदि। जब किसी पदार्थ के कोई विशिष्ट देवता नहीं होते तो विष्णु को ही देवता मान लिया जाता है। इस प्रकार का विचार ब्राह्मण-ग्रन्थों एवं श्रौतसूत्रों से लिया गया है, जहाँ रुद्र, सोम, प्रजापति आदि क्रम से गायों, परिधानों, मानवों आदि के देवता कहे गये हैं (देखिए तैत्तिरीय ब्राह्मण २।२।५, आपस्तम्बधर्मसूत्र १४।१२३)।
पान देने की विषि-दाता एवं प्रतिग्रहीता को स्नान करके दो पवित्र धवल वस्त्र धारण कर लेने चाहिए, दाता को पवित्री पहनकर आचमन करना चाहिए, पूर्वाभिमुख होकर उपवीत ढंग से यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए, स्वयं पवित्र आसन (कुशासन) पर बैठकर प्रतिग्रहीता (दान लेने वाले) को उत्तराभिमुख बैठाकर दान के पदार्थ का नाम, उसके देवता का नाम तथा दान देने का उद्देश्य उच्चारित करना चाहिए और कहना चाहिए-“मैं इस पदार्थ का दान आपको कर रहा हूँ", तब प्रतिग्रहीता के हाथ पर जल गिराना चाहिए। जब प्रतिग्रहीता कहे “दीजिए", तब दाता को देय पदार्थ पर जल छिड़कना चाहिए और उसे प्रतिग्रहीता के हाथ पर रख देना चाहिए, तब प्रतिग्रहीता “ओम्" कहकर "स्वस्ति" का उच्चारण करता है। इसके उपरान्त प्रतिग्रहीता को दक्षिणा दी जाती है। अग्निपुराण (२०९। ५९-६१) ने निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए दान की चर्चा की है-पुत्र, पौत्र, गृहेश्वर्य, पत्नी, धर्मार्थ, कीति, विद्या, सौभाग्य, आरोग्य, सर्वपापोपशान्ति, स्वर्गार्ष, भुक्तिमुक्ति।" समय एवं देय पदार्थों के अनुसार विधि में परिवर्तन किया जा सकता है, यथा भूमि का दान हाथ से नहीं लिया जा सकता, वैसी स्थिति में दान की हुई भूमि की प्रदक्षिणा या उसमें प्रवेश मात्र पर्याप्त है।
राजाद्वारा रान-याज्ञवल्क्य (१३१३३) के मत से राजा को चाहिए कि वह प्रतिदिन वेदज्ञ (श्रोत्रिय) ब्राह्मणों को दुधारू गायें, सोना, भूमि, घर, विवाह करने के उपकरण आदि दे। यह बहुत प्राचीन परम्परा रही है। वनपर्व (१८६।१५) में आया है कि जो ब्राह्म विवाह के लिए कन्या दान एवं भूमि दान करता है, वह इन्द्रलोक के आनन्द का उपभोग करता है। नहपान के दामाद उषवदात (प्रथम शताब्दी ई० सन्) के शिलालेख से पता चलता है कि वह प्रति वर्ष तीन लाख गायें एवं १६ ग्राम ब्राह्मणों एवं देवताओं को दान देता था; प्रति वर्ष एक लाख ब्राह्मणों को भोजन देता था; उसने प्रभास (सौराष्ट्र) में अपने व्यय से आठ ब्राह्मणों के विवाह कराये; उसने बासा नदी के किनारे सीढ़ियां बनवायीं; भरुकच्छ (आधुनिक भरोंच), दशपुर (मालवा), गोवर्धन (नासिक) एवं शूर्पारक (सोपारा) में चतुःशालाएँ, गृह एवं प्रतिश्रय (ठहरने के स्थान) बनवाये; कूप एवं तालाब बनवाये ; इबा, पारदा, दमणा, तापी, करबेणा, दाहानुका (ये सभी थाना एवं सूरत के बीच में हैं) नामक नदियों पर निःशुल्क नावें चलवायीं; जल वितरण के लिए आश्रय-स्थल एवं सभागृह बनवाये ; शूर्पारक में रामतीर्थ एवं अन्य तीन स्थानों के चरक शाखा के ब्राह्मणों की सभा में ननगोला (आधुनिक नर्गोल) में, ३२००० नारियल दिये। उषवदात ने यह भी लिखा है कि उसने एक ब्राह्मण से
१३. पुत्रपौत्रगृहेश्वर्यपत्नीधर्मापंसद्गुणाः। कीतिविवामहाकाम-सौभाग्याराग्यवृद्धये। सर्वपापोपशान्त्यर्ष स्वर्गा भुक्तिमुक्तये। एतत्तुभ्यं संप्रबने प्रीयता मे हरिः शिवः॥ अग्निपुराण (२०९१५९-६१)।
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