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________________ roc धर्मशास्त्र का इतिहास खुर वाले पशुओं का व्यापार वजित है, किन्तु गरीबनाथ के पेहोवा शिलालेख से पता चलता है कि ब्राह्मण लोग भी अश्व के क्रय-विक्रय का व्यापार करते थे और इस व्यापार से उत्पन्न लाम को मन्दिरों के प्रबन्ध में व्यय किया जाता या (एपिग्रेफिया इण्डिका, जिल्द १, पृ० १८६)। गौतम (१९१६) ने अपराधों के प्रायश्चित्त के लिए अश्व-दान की चर्चा की है। दान के विषय में और देखिए शांखायन ब्राह्मण (२५।१४) एवं ऐतरेय ब्राह्मण (३०१९)। शतपथब्राह्मण (२।२।१०।६) का कहना है-“देव दो प्रकार के होते हैं; स्वर्ग के देव एवं मानव देव, अर्थात् वेदज्ञ ब्राह्मण; इन्हीं दोनों में यज्ञ का विभाजन होता है, अर्थात् आहुतियां देवों को मिलती हैं तथा दक्षिणा मानव देवों (वेदज्ञ ब्राह्मणों) को।" तैत्तिरीयसंहिता (६।१।६।३) का कहना है कि व्यक्ति जब अपना सर्वस्व दान कर देता है तो वह भी तपस्या ही है। बृहदारण्यकोपनिषद् (५।२।३) के अनुसार तीन विशिष्ट गुण है दम, दान एवं दया। ऐतरेय ब्राह्मण (३९।६-७) ने भी सोने, पृथिवी एवं पशु के दान की चर्चा की है। छान्दोग्योपनिषद् (४।२।४-५) में आया है कि जानश्रुति ने संवर्ग विद्या के अध्ययन हेतु रैक्व को एक सहस्र गौएँ, एक सोने की सिकड़ी, एक रथ जिसमें खच्चर जुते थे, अपनी कन्या (पत्नी के रूप में) एवं कुछ ग्राम दान में दिये थे। रक्व को प्रदत्त गाँव कालान्तर में महावर्ष देश में रक्वपर्ण ग्राम के नाम से विख्यात हुए। __ दान-सम्बन्धी साहित्य बहुत लम्बा-चौड़ा है। महाभारत के सभी पों में दान-सम्बन्धी सामान्य संकेत मिलते हैं तथा अनुशासन पर्व में विशेष रूप से दान के विभिन्न स्वरूपों पर प्रकाश डाला गया है। पुराणों में विशेषतः अग्नि (अध्याय २०८-२१५ एवं २१७), मत्स्य (अध्याय ८२-९१ एवं २७४-२८९) एवं वराह (अध्याय ९९-१११) दान के विषय में कतिपय चर्चा करते हैं। कुछ निबन्धों ने दान पर पृथक् प्रकरण उपस्थित किये हैं। इस विषय में हेमाद्रि का दानखण्ड (चतुर्वर्गचिन्तामणि), गोविन्दानन्द की दानक्रियाकौमुदी, नीलकण्ठ का दानमयूख, विद्यापति की दानवाक्यावलि, वल्लालसेन का दानसागर एवं मित्र मिश्र का दानप्रकाश अधिक प्रसिद्ध हैं। नीचे हम इनका संक्षिप्त आशय दे रहे हैं। 'दान' का अर्थ 'दान' का अर्थ प्राचीन काल में ही स्पष्ट कर दिया गया था। याग, होम एवं दान में अन्तर है। याग में देवता के लिए वैदिक मन्त्रों के साथ कुछ वस्तुओं का त्याग होता है, होम में अपनी किसी वस्तु की आहुति किसी देवता के लिए अग्नि में दी जाती है, दान में किसी दूसरे को अपनी वस्तु का स्वामी बना दिया जाता है। दान लेने की स्वीकृति मानसिक या वाचिक या शारीरिक रूप से हो सकती है (देखिए जैमिनि ४।२।२८, ७।११५ एवं ९।४।३२ पर शबर, तथा याज्ञवल्क्य २।२७ पर मिताक्षरा) । मिताक्षरा का कहना है कि शारीरिक (कायिक) स्वीकृति एक हाथ में ले लेने या छू देने से हो जाती है। दानक्रियाकौमुदी (पृ० ७) में उद्धृत विष्णुधर्मोत्तर, बृहत्पराशर (अध्याय ८, पृ० २४२) आदि में दान लेने की विधियों का विशद वर्णन पाया जाता है। धर्मशास्त्र में 'प्रतिग्रह' शब्द का विशिष्ट अर्थ होता है। मनु (४१५) २. एष च यजिः यद्रव्यं देवतामुद्दिश्य मन्त्रेण त्यज्यते। जैमिनि ७।१५ को व्याख्या में शबर। स्वस्वत्वनिवृत्तिः परस्वत्वापादनं च दानम्। परस्वत्वापादनं च परो यदि स्वीकरोति तवा सम्पद्यते नान्यया। स्वीकारश्च त्रिविधः । मानसो वाचिकः कायिकश्चेति।... कायिकः पुनरुपादानाभिमर्शनादिरूपोऽनेकविधः। तत्र च नियमः स्मयते। दद्यात्कृष्णाजिनं पृष्ठे गां पुच्छे फरिणं करे। केसरेषु तथैवाश्वं दासी शिरसि दापयेत् ॥ इति...क्षेत्रावी पुनः फलोपभोगव्यतिरेकेण कायिकस्वीकारासम्भवात् स्वल्पेनाप्युपभोगेन भवितव्यम्। मिताक्षरा (यामवल्क्य २।२७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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