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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास देवों को दिये जाते हैं" या जिसमें "नव अन्न सर्वप्रथम दिया या खाया जाता है।"" आश्वलायनश्रौतसूत्र (२।९) के अनुसार आप्रयण इष्टि केवल आहिताग्नियों (जिन्होंने तीनों वैदिक अग्नि स्थापित की हों) द्वारा ही की जानी चाहिए। नारायण ने टीका में लिखा है कि आहिताग्नि को श्रौतसूत्र के अनुसार नव अन्न का यज्ञ करना चाहिए, यदि कठिनाई हो तो यह कृत्य आश्वलायनगृ० (२।२।४) के अनुसार त्रेता अग्नियों में भी किया जा सकता है तथा जिन्होंने तीन अग्नियां न जलायी हों तो वे शाला (अर्थात् औपासन) अग्नि में भी इसे कर सकते हैं। चावल, जौ एवं श्यामाक नामक अन्नों का उपयोग बिना आग्रयण किये नहीं हो सकता था। किन्तु अन्य अन्नों एवं शाकों के प्रयोग के विषय में ऐसी बात नहीं थी। श्रौत आग्रयण के देवता तीन हैं, यथा इन्द्राग्नी (या अग्नीन्द्रौ), विश्वे देव एवं द्यावापृथिवी, किन्तु गृह्य आग्रयण में स्विष्टकृत् अग्नि भी जोड़ दिया गया है। आश्वलायनगृह्य० (२।२।४-५) में इस कृत्य का वर्णन है, जिसे हम यहाँ स्थानाभाव से नहीं दे रहे हैं। इस कृत्य का वर्णन आपस्तम्बगृ० (१९६६-७), शांखायनगृ० (३.८), पारस्करगृ० (३१), गोमिलगृ० (३।८।९-२४), खादिरगृ० (३।३।६-१५), वैखानस (४।२), मानवगृ० (२।३।९-१४) आदि में भी पाया जाता है। वैखानस ने देवताओं के साथ पितरों को भी जोड़ दिया है। मानवगृ० ने वसन्त में किसी पर्व के दिन जो अन्न का तथा शरद् में चावल का इस कृत्य के साथ सम्बन्ध जोड़ा है। वैखानस ने बिना आग्रयण कृत्य किये.नवान प्रयोग करने पर पादकृच्छ प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है (६।१९)। आग्रहायणी यह कृत्य गौतम (८।१९) द्वारा वर्णित चालीस संस्कारों में परिगणित है, और सात पाकयज्ञों में एक पाकयज्ञ है। मार्गशीर्ष (अगहन) की पूर्णमासी को आग्रहायणी कहा जाता है, अतः उस दिन जो कृत्य सम्पादित हो उसे भी वही संज्ञा मिली है। इसमें प्रत्यवरोहण कृत्य द्वारा पर्यक एवं खाटों पर सोना छोड़ दिया जाता है। शांखायभगृ० (४।१५। २२)के मत से श्रावणी (श्रावण मास की पूर्णमासी) से लोग पृथिवी पर सोना छोड़ देते हैं, क्योंकि सर्प-दंश का डर रहता है। कुछ लोग आग्रहायणी एवं प्रत्यवरोहण को दो विशिष्ट कृत्य मानते हैं, जिनमें प्रथम मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को तथा दूसरा हेमन्त की प्रथम रात्रि को मनाया जाता है (देखिए आपस्तम्बगृह्य १९१३-५ एवं ८-१२) । इस कृत्य के काल एवं विधि के विषय में कई मत हैं, जिनके पचड़े में हम यहाँ नहीं पड़ेंगे। पारस्करगृ० (३।२) एवं गोभिलगृ० (३।९।१-२३) में इसके विषय का विस्तार दिया हुआ है। आजकल यह कृत्य बिल्कुल नहीं किया जाता, अतः बहुत ही संक्षेप में यहां इसका वर्णन किया जा रहा है। घर को पुनः (अर्थात् 'आश्वयुजी' के उपरान्त) स्वच्छ किया जाता है (लीपा-पोता जाता है, चिकनी मिट्टी तथा गोबर से स्वच्छ करने की प्रथा रही है) । फर्श को समतल कर दिया जाता है। सायंकाल पायस की आहुतियाँ दी जाती हैं। इसमें स्विष्टकृत् अग्नि को आहुति नहीं दी जाती। अग्नि के पश्चिम में घास बिछा दी जाती है जिस पर गृहस्थ अपने घर वालों के साथ सिर को पूर्व दिशा में रखकर उत्तराभिमुख हो ऋग्वेद (१।२२।१५) के मन्त्र के साथ बैठ जाता है। इसी प्रकार मन्त्रों के उच्चारण के साथ सबको उठना पड़ता है। ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। अंगुत्तर-निकाय (पालि-ग्रन्थ) में भी 'पच्चोरोहनिवग्ग' नामक खण्ड में ब्राह्मणों द्वारा सम्पादित प्रत्यवरोहण कृत्य का वर्णन है। इस कृत्य का वर्णन अन्य गृह्यसूत्रों में भी पाया ३. आपस्तम्बगृह्म० (१९।६) की टीका में सुदर्शन लिखते हैं-येन कर्मणा अपनवद्रव्यं देयान्प्रापयतीति यत्कर्म कृत्वव वारयणं प्रथमायनं नवान्नप्राशनप्राप्तिर्भवतीति। हरदत्त ने इसकी व्याख्या में कहा है-एतिरत्र प्राशनार्थः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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