SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 445
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२२ धर्मशास्त्र का इतिहास छोड़कर अन्य पाँच नाखून वाले (पञ्चनख) पशुओं को खाने से मना किया है। गौतम ने जबड़ों में दाँत बाले पशुओं, बाल वाले तथा बिना बाल वाले (यथा सर्प) पशुओं, ग्रामीण मुर्गों, ग्रामीण सूअरों, गायों एवं बैलों को खाने से मना किया है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।२।५।१५) ने एक खुर वाले पशुओं, ऊँटों, गवयों (घुड़रोजों), ग्रामीण सूअरों, शरमों एवं गायों के मांस को वजित किया है, किन्तु बैलों के मांस को वाजसनेयक के अनुसार पवित्र माना है। इसी धर्मसूत्र (२।२।५।१५) ने उपाकर्म से उत्सर्जन तक के मासों में वेदाध्यापक को मांस खाने से मना किया है, जिससे प्रकट होता है कि अन्य मासों में ब्राह्मण आचार्य लोग मांस-भक्षण करते थे। बासी भोजन एवं बिना पका मांस खाने वाले छात्र को अनध्याय नहीं करना पड़ता था (आपस्तम्बधर्मसूत्र ११३।११।४)। इस धर्मसूत्र (२।३।७।४) ने लिखा है कि अतिथि को मांस देने से द्वादशाह यज्ञ करने का फल मिलता है। वसिष्ठधर्मसूत्र (११॥३४) ने लिखा है कि श्राद्ध या देवपूजा में दिये गये मांस को यदि प्रार्थना करने पर यति नहीं खाता है तो वह असंख्य वर्षों तक नरक में रहता है। किन्तु क्रमशः लोगों के मनोभावों में परिवर्तन हुआ। मेगस्थनीज (पृ० ९९) एवं स्ट्रैवो (१६।११५९) ने लिखा है कि दार्शनिकों की प्रथम जाति, जो दो उपविभागों में विभाजित है, यथाअचमनेस (ब्राह्मण) एवं सर्मनेस (श्रमण), पशु-मांस नहीं खाती और न मैथुन करती है (सम्भवतः ब्रह्मचारी के रूप में), किन्तु ३७ वर्षों तक इस प्रकार रहकर यह जाति उन पशुओं का, जो कृषि के लिए बेकार होते हैं, मांस खाती है। सम्राट अशोक भी पहले मांसभोजी था, किन्तु क्रमशः उसने अपने राजकीय भोजनालय में पशु-मांस बनना बन्द करा दिया। प्राचीन ऋषियों ने देवयज्ञ, मधुपर्क एवं श्राद्ध में मांस-बाल की व्यवस्था दा है अतः मनु एवं वसिष्ठ ने इस विषय में दो बातें कही हैं। मनु (५।२७-४४) ने केवल मधुपर्क, यज्ञ, देवकृत्य एवं श्राद्ध में पशु-हनन की आज्ञा दी है। मनु (५।२७ एवं ३२) ने लिखा है कि जब प्राण संकट में हों (अकाल या रोग के कारण) तो मांस-मक्षण से पाप नहीं लगता। यही बात याज्ञवल्क्य (१।१७९) ने भी कही है। मनु ने आगे चलकर लिखा है कि पशु-हनन से व्यक्ति मारे गये पशु के रोमों की संख्या वाले जन्मों तक स्वयं मारा जाता है (विष्णुधर्मसूत्र ५१।६०) । मनु (५।४० एवं ४४-विष्णुधर्मसूत्र २।६३, ६७) ने लिखा है कि पौधे, पशु, वृक्ष (जिनसे यज्ञ के लिए स्तम्म आदि बनते हैं), छोटे जीव, पक्षी आदि, जो यज्ञ करने के सिलसिले में आहत होते हैं, अच्छी योनियों में पुनः जन्म लेते हैं। वैदिक हिंसा हिंसा नहीं कहलाती क्योंकि वेद से ही धर्म का प्रकाश निकला है। यही बात दूसरे ढंग से वसिष्ठधर्मसूत्र (१४।३९-४०, ६।५-६) ने भी कही है। आगे चलकर मनु (५।४६-५५) ने यज्ञों में भी पशुबलि को वजित कर दिया (विष्णुधर्मसूत्र ५११६९-७८)। मनु (५।५३) ने अन्त में अपना निष्कर्ष दिया है-मांसभक्षण, मद्यपान एव मैथुन में दोष नहीं है, क्योंकि वे स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ हैं। कुछ अवसरों एवं कुछ लोगों के लिए ये शास्त्रानुमोदित हैं, किन्तु इनसे दूर रहने पर (उन अवसरों पर भी जिनके लिए शास्त्रों की आज्ञा मिल चुकी है) महाफल की प्राप्ति होती है। मनु, ७. मधुपर्क च यज्ञे च पितृदेवतकर्मणि। अत्रेव पशवो हिस्या नान्यत्रेत्यनवीन्मनुः॥ मनु ५।४१। यही बात वसिष्ठ (४६), विष्णुधर्मसूत्र (५११६४) एवं शांखायनगृह्यसूत्र (२०१६।१) में भी पायी जाती है। ८. न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैयुने। प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥ मनु ५।५६। तन्त्रवार्तिक . (पृ० १९१) ने इसे उद्धृत किया है। बृहस्पति ने इसका वास्तविक अर्थ बताया है-सौत्रामच्या तया मचं श्रुतौ भक्ष्यमुदाहृतम्। ऋतौ च मथुनं धयं पुत्रोत्पत्तिनिमित्ततः॥ स्वर्ग प्राप्नोति नैवं तु प्रत्यवायेन युज्यते॥ मनु (५।५०) की व्याख्या में सर्वज्ञ नारायण द्वारा उद्धृत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy