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धर्मशास्त्र का इतिहास (संसर्ग), क्रिया, भाव एवं परिग्रह । ईख के रस से मदिरा बनती है, यदि यह जानकर उसका पान किया जाय तो यह भावदुष्ट कहलाएगा। किन्तु गौतम (१७।१२) के मत से भावपुष्ट भोजन उसे कहते हैं जो अनादर के साथ दिया जाय, या जिसे खाने वाला घृणा करे या जिससे वह ऊब उठे।'
मांस-भक्षण-आगे कुछ कहने के पूर्व मांस-मक्षण पर कुछ लिख देना अत्यावश्यक है। ऋग्वेद में देवताओं के लिए बैल का मांस पकाने की ओर कई संकेत किये गये हैं; उदाहरणार्थ, इन्द्र कहता है-"वे मेरे लिए १५+२० बैल पकाते हैं" (ऋग्वेद १०८६।१४, और मिलाइए ऋग्वेद १०।२७।२)। ऋग्वेद (१०१९१११४) में आया है कि अग्नि के लिए घोड़ों, बैलों, सांडों, बाँझ गायों एवं भेड़ों की बलि दी गयी। देखिए ऋग्वेद (८।४३।११, १०७९।६)। किन्तु उसी में गौ को 'अघ्न्या ' (ऋग्वेद १११६४।२७ एवं ४०, ४।११६, ५।८३१८, ८१६९।२१, १०८७।१६ आदि) भी कहा गया है, जिसका अर्थ निरुक्त (१०४३) ने यों लगाया है-“अघ्न्या अहन्तव्या भवति अपघ्नी इति वा", अर्थात् “वह जो मारे जाने योग्य नहीं है।" कमी-कमी यह शब्द (अघ्न्या) 'धेनु' के विरोध में भी प्रयुक्त हुआ है (ऋग्वेद ४११६, ८०६९।२), अतः यह तर्क उपस्थित किया जा सकता है कि ऋग्वेद के काल में दूध देनेवाली गायें काटे जाने योग्य नहीं मानी जाती थीं। हम इसी तर्क के आधार पर गायों के प्रति प्रशंसात्मक सूक्तों का भी अर्थ लगा सकते हैं, यथा--ऋग्वेद (६।२८।१-८ एवं ८1१०१११५ एवं १६)। ऋग्वेद (८1१०१११५१६) में गाय को रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदित्यों की बहिन एवं अमृत का केन्द्र माना गया है और ऋषि ने अन्त में कहा है-"गाय की हत्या न करो, यह निर्दोष है और स्वयं अदिति है।" ऋग्वेद (८।१०।१६) में गाय को देवी भी कहा गया है। इससे प्रकट होता है कि गाय क्रमशः देवत्व को प्राप्त होती जा रही थी। दूध के विषय में गाय की अत्यधिक महत्ता, कृषि में बैलों की उपयोगिता तथा परिवार में आदान-प्रदान एवं विनिमय सम्बन्धी अर्थनीतिक उपयो गिता एवं महत्ता के कारण गाय को देवत्व प्राप्त हो गया। अथर्ववेद (१२।४) में भी गाय की पूतता (पवित्रता) मार्न गयी है। ब्राह्मण-ग्रन्थों से पता चलता है कि तब तक गाय की बलि दी जाती थी (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।९।८, शतपथ ब्राह्मण ३।१।२।२१)। ऐतरेय ब्राह्मण (६८) के मत से घोड़ा, बैल, बकरा, भेड़ बलि के पशु हैं, किन्तु किम्पुरुष, गौरमृग, गवय, ऊँट एवं शरभ (आठ पैरों वाला कलात्मक जन्तु) नामक पशुओं की न तो बलि हो सकती है और न वे खाये जा सकते हैं। शतपथ ब्राह्मण (११२।३।९) में भी यही बात पायी जाती है। शतपथ ब्राह्मण (११३७१।३) ने घोषित किया है कि मांस सर्वश्रेष्ठ भोजन है। आगे चलकर गाय इतनी पवित्र हो गयी कि बहुत-से दोषों के निवारणार्थ उसके दूध, दही, घृत, मूत्र एवं गोबर से 'पञ्चगव्य' बनने लगा। पंचगव्य के विषय में जो नियम बने हैं, उनकी जानकारी के लिए देखिए याज्ञवल्क्य (३।३१४), बौधायनगृह्यसूत्र (२।२०), पराशर (१११२८-३४), देवल (६२-६५), लघु-शातातप (१५८-१६२), मत्स्यपुराण (२६७।५-६) । पराशर एवं अत्रि में पंचगव्य निर्माण की विधियाँ हैं, जिन्हें स्थानाभाव के कारण हम यहाँ नहीं दे रहे हैं । पंचगव्य को ब्रह्मकूर्च भी कहा जाता है। गाय के सभी अंग (मुख के अतिरिक्त) पवित्र माने गये है। मनु (५।१२८) ने गाय द्वारा सूंघे या चाटे गये पदार्थों के पवित्रीकरण की बात चलायी
६. भविष्यपुराणणम्। जातिदुष्टं क्रियादुष्टं कालाश्रयविदूषितम्। संसर्गाश्रयदुष्टं च सहल्लेखं स्वभावतः॥ अपरार्क पृ० २४१। मिलाइए वृद्धहारीत ११३१२२-१२३-भावदुष्टं क्रियादुष्टं कालदुष्टं तथंव च। संसर्गदुष्टं च तथा वर्जयेद्यज्ञकर्मणि ॥ अन्नस्य च निन्दितत्वं स्वभाव-काल-संपर्क-क्रिया-भाव-परिग्रहः षोढा भवति। अपराकं पृ० ११५७। इनमें से कुछ शब्द वसिष्ठधर्मसूत्र (१४१२८) में भी पाये जाते हैं—'अन्नं पर्युषितं भावदुष्टं सहल्लेखं पुनः सिद्धभाममांसं पक्वं च।'
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