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धर्मशास्त्र का इतिहास
गोभिलस्मृति (२।१७ ) के मत से वेद का मन्त्रोच्चारण आरम्भ से जितना हो सके चुपचाप करना चाहिए । तर्षण के पूर्व या प्रायः होम के उपरान्त या वैश्वदेव के अन्त में जप होना चाहिए और इसी को ब्रह्मयज्ञ कहते हैं (गोभिलस्मृति २।२८-२९ ) । विष्णुधर्मसूत्र ( ६४ ३६- ३९ ) के मत से जप में वैदिक मन्त्र, विशेषतः गायत्री एवं पुरुषसूक्त कहे जाते हैं, क्योंकि वे सर्वोत्तम मन्त्र हैं ।
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जप तीन प्रकार का होता है; वाचिक (स्पष्ट उच्चारित), उपांशु (अस्पष्ट अर्थात् न सुनाई देने योग्य) एवं मानस ( मन में कहना ), जिनमें अन्तिम सर्वोत्तम, दूसरा मध्यम तथा प्रथम ततीय श्रेणी का माना जाता है ( देखिए मनु २८५, वसिष्ठ २६ ९, शंख १२०२९) । जप से पाप कट जाता है ( गौतम १९।११ ) । जप कुश के आसन पर बैठकर किया जाता है । घर, नदी के तट, गोशाला, अग्नि-प्रकोष्ठ, तीर्थ, देव-प्रतिमा के सामने जप करना चाहिए; इनमें एक के बाद दूसरा उत्तम माना जाता है और क्रम से आगे बढ़ने पर देव-प्रतिमा के समक्ष का जप सर्वोत्तम माना जाता है। जप करते समय बोलना नहीं चाहिए। ब्रह्मचारी तथा पवित्र अग्नि प्रज्वलित करने वाले गृहस्थ को गायत्री मन्त्र १०८ बार कहना चाहिए, किन्तु वानप्रस्थ तथा यति को १००० बार से अधिक कहना चाहिए ( मनु २1१० ) । मध्य काल में जब वेदाध्ययन अवनति के मार्ग पर था और पुराणों को अधिक महत्ता दी जाने लगी थी तो निबन्धों ने घोषित किया कि जो सम्पूर्ण वेद जानते हों, उन्हें प्रतिदिन जितना सम्भव हो सके वेद का पाठ करना चाहिए, जिन्होंने वेद का अल्प अंश पढ़ा हो, उन्हें पुरुषसूक्त (ऋग्वेद १०/९० ) का जप करना चाहिए और जो ब्राह्मण केवल गायत्री जानता है उसे पुराणों की उक्तियों का जप करना चाहिए (गृहस्थरत्नाकर, पृ० २४९ ) । वृद्धहारीत (६३३, ४५, १६३, २१३ ) के मत से ६ अक्षरों ( ओं नमो विष्णवे ), या ८ अक्षरों (ओं नमो वासुदेवाय ), या १२ अक्षरों ( ओं नमो भगवते वासुदेवाय ) का जप १००८ बार या १०८ बार करना चाहिए । मन्त्र की संख्या गिनना कई ढंग से प्रचलित है, अँगुलियों द्वारा (अँगूठे को छोड़कर), पृथिवी या भीत पर रेखाएं खींचकर या माला की मणियाँ गिन कर। बिना संख्या जाने जप करना निष्फल माना जाता है । शंखस्मृति ( १२ ) के अनुसार माला की मणियाँ सोने की, रत्नों की, मोतियों की, स्फटिक की, रुद्राक्ष की, पद्माक्ष ( कमल के बीज ) की या पुत्रजीवक की होनी चाहिए। संख्या का गिनना कुशमूल की गाँठों से या बायें हाथ की अँगुलियों को झुकाकर भी सम्भव है। माला
१०८ (सर्वोत्तम ) या ५४ (मध्यम) या २७ ( कम-से-कम ) मणियाँ हो सकती हैं। कालिदास ( रघुवंश ११।६६ ) ने लिखा है कि परशुराम के दाहिने कान पर अक्षबीज की माला थी । बाण ( कादम्बरी) ने रुद्राक्ष की चर्चा की है। माला-सम्बन्धी अन्य बातों की जानकारी के लिए देखिए स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १५२ - १५३, पराशरमाधवीय ११, पृ० ३०८-३११, मदनपारिजात, पृ० ८०, आह्निकप्रकाश, पृ० ३२६-३२८ ।
मंगलमय एवं अमंगल पदार्थ या व्यक्ति
होम एवं जप के उपरान्त कुछ काल तक मंगलमय पदार्थों को देखना या उन पर ध्यान देना चाहिए; और वे पदार्थ हैं - गुरुजनों का दर्शन, दर्पण या घृत में मुख दर्शन, केश-सँवारना, आँख में अंजन लगाना या दूर्वा-स्पर्श (गृहस्थरत्नाकर, पृ० १८३ तथा मनु ४। १५२ ) । नारद ( प्रकीर्णक, ५४/५५ ) के मत से आठ प्रकार के मंगलमय पदार्थ हैं - ब्राह्मण, गाय, अग्नि, सोना, घृत, सूर्य, जल एवं राजा । इन्हें देखने पर झुकना चाहिए या इनकी प्रदक्षिणा करनी चाहिए, क्योंकि इससे आयु बढ़ती है। इस विषय में और देखिए वामनपुराण ( १४।३५-३७), मत्स्यपुराण (२४३), विष्णुधर्मसूत्र ( २३५८), आदिपर्व ( २९।४३), द्रोणपर्व ( १२७।१४ ), शान्तिपर्व (४०।७), अनुशासनपर्व ( १२६ । १८ एवं १३१८ ) । विष्णुधर्मसूत्र ( ६३।२६ ) के मत से ब्राह्मण, वेश्या, जलपूर्ण घड़ा, दर्पण, ध्वजा, छाता, प्रासाद, पंखा, चंवर आदि पदार्थों को देखकर यात्रा आरम्भ करनी चाहिए। यदि प्रस्थान करते समय शराबी, पागल, लंगड़े,
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