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________________ स्नान जा सकते हैं। चारों वर्गों का पवित्र ४ दर्भो या क्रम से ३, २ या १ दर्म का होना चाहिए या सबके लिए दो दर्मों का पवित्र होना चाहिए। जिसमें आगे कोई अंकुर नहीं फूटते. वह दर्भ कहा जाता है, जिसमें पुनः अंकुर निकलते हैं वह कुश कहलाता है, किन्तु जड़ के साथ दर्भ को कुतप तथा जिसके ऊपरी पोर काट डाले गये हैं वह तृण कहलाता है। तिल के खेत में उगने वाले तथा जिनमें सात अंकुर हों ऐसे कुश बड़े मंगलमय समझे जाते हैं। ___ यज्ञों में प्रयुक्त होनेवाले दर्मों का रंग हरा एवं पाकयज्ञों में प्रयुक्त होनेवालों का रंग पीला होना चाहिए, पितरों के श्राद्ध वाले दर्भ समूल होने चाहिए तथा वैश्वदेव के लिए विभिन्न रंग वाले होने चाहिए। पिण्डदान, पितृतर्पण या मलमूत्र-त्याग के समय प्रयुक्त दर्म फेंक देने चाहिए (स्मृत्यर्थसार, पृ० ३७)। यदि दर्भ (कुश) न मिले तो कास का दूर्वा का प्रयोग हो सकता है। स्नान-इसका वर्णन कई प्रकार से हो सकता है। यह या तो मुख्य (जल के साथ) या गौण (बिना जल के) होता है, और पूनः ये दोनों प्रकार कई मागों में बँटे हैं। दक्ष (२१४८) के मत से स्नान नित्य (आवश्यक प्रति दिन वाला), नैमित्तिक (किन्हीं विशेष अवसरों पर किया जाने वाला) एवं काम्य (किसी फल-प्राप्ति की इच्छा से किया जाने वाला) होता है। सभी वर्गों को प्रति दिन जल में या जल से पूरे शरीर के साथ (सशिर) स्नान करना चाहिए (बौधायनधर्मसूत्र २।४।४, मनु २।१७६ एवं ४।८।८२) तथा द्विजातियों को वैदिक मन्त्रों के साथ स्नान करना चाहिए। इसे ही नित्य स्नान कहते हैं। बिना नित्य स्नान के होम, जप एवं अन्य कृत्य नहीं सम्पादित हो सकते (शंख ८५२ एवं दक्ष २।९)। शरीर गन्दा होता है, क्योंकि इससे दिन और रात गन्दगी निकला करती है, अतः प्रति प्रातः स्नान करके इसे स्वच्छ करना चाहिए। इस प्रकार से स्नान द्वारा दृश्य एवं अदृश्य फल प्राप्त किये जाते हैं। याज्ञवल्क्य (११९५ एवं १००), लघु-आश्वलायन (१११६, ७५), दक्ष (२१९ एवं ४३) आदि के अनुसार ब्राह्मण गृहस्थों को दो बार, प्रथम प्रातः और दूसरा मध्याह्न में, स्नान करना चाहिए। ब्रह्मचारियों के लिए एक बार तथा वानप्रस्थों के लिए दो बार स्नान करने की व्यवस्था है (मनु ६१६) । किन्तु मनु (६।२८) एवं याज्ञवल्क्य (३।४८) के अनुसार वानप्रस्थों एवं यतियों के लिए प्रातः, मध्याह्न एवं सायं (तीन बार) स्नान करने की व्यवस्था है। स्मृत्यर्थसार (पृ० २७) के अनुसार आजकल बहुधा मध्याह्न के पूर्व स्नान होता है, यति लोग प्रातः स्नान करते हैं, और प्रातः ही व्रत करने वाले, ब्रह्मचारी, यज्ञ कराने वाले पुरोहित, वेदपाठी छात्र तथा तप में लगे हुए लोग स्नान करते हैं। दन्तघावन के उपरान्त सूर्योदय के पूर्व ही स्नान कर लेना चाहिए (विष्णुधर्मसूत्र ६४।८)। गोमिलस्मति (२०२४) के अनसार स्नान के समय मन्त्रपाठ करने में अधिक समय नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि होम के समय (पूर्व दिशा में एक बित्ता भर सूर्य के उठ जाने तक) पाठ तो होता ही है (देखिए मनु २।१५)। माध्याह्न स्नान दिन के चौथे भाग में (दिन आठ भागों में विभाजित करके) करना चाहिए तथा साथ में भुरभुरी मिट्टी, गोबर, पुष्प, अक्षत चावल, कुश, तिल एवं चन्दन होना चाहिए (दक्ष २।४३ एवं लघु-व्यास २।९)। रोगी व्यक्ति को माध्याह्न स्नान नहीं करना चाहिए। तीसरा स्नान (वानप्रस्थों एवं यतियों के लिए) सूर्यास्त के पूर्व (सूर्यास्त के उपरान्त या रात्रि में नहीं) कर लेना चाहिए। रात्रि-स्नान वर्जित है, किन्तु ग्रहण, विवाह, जन्म-मरण या किसी व्रत के समय यह वजित नहीं है। मनु (४११२९ तथा कुल्लक की इस पर व्याख्या) एवं पराशर (१२।२७) के अनुसार रात्रि की गणना विशेषतः दो प्रहर के उपरान्त होती है। नित्य स्नान शीतल जल से होना चाहिए। साधारणतः गर्भ जल वर्जित है। शंख (८।९-१०) एवं दक्ष (२।६४) के अनुसार गर्म जल या दूसरे के लिए रखे हुए जल से स्नान करने पर अदृश्य आध्यात्मिक सुन्दर फल नहीं प्राप्त होता। नैमित्तिक एवं काम्य स्नान तो प्रत्येक दशा में शीतल जल से होते ही हैं, केवल नित्य स्नान में ही कमी कभी अपवाद पाया जा सकता है (गर्ग, स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० १२३ में उद्धृत)। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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