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धर्मशास्त्र का इतिहास
परदा की प्रथा क्या आधुनिक काल में पायी जाने वाली परदा-प्रथा जो मुसलमानों एवं भारत के कुछ भागों में विद्यमान है, प्राचीन काल से चली आयी है ? ऋग्वेद (१०।८५३३) ने लोगों को विवाह के समय कन्या की ओर देखने को कहा है-"यह कन्या मंगलमय है, एकत्र होओ और इसे देखो, इसे आशीष देकर ही तुम लोग अपने घर जा सकते हो।" आश्वलायनगृह्यसूत्र (१९८७) के अनुसार दुलहिन को अपने घर ले आते समय दूलह को चाहिए कि वह प्रत्येक निवेश स्थान (रुकने के स्थान) पर दर्शकों को ऋग्वेद (१०।८५।३३) के उपर्युक्त मन्त्र के साथ दिखाये। इससे स्पष्ट है कि उन दिनों दुलहिनों या वधुओं द्वारा अवगुण्ठन (परदा या चूंघट) नहीं धारण किया जाता था, प्रत्युत वे सबके सामने निरवगुण्ठन आती थीं। ऋग्वेद के विवाहसूक्त (१०१८५।४६) में एक स्वस्तिवचन है कि वधू अपने श्वशुर, सास, ननद, देवर आदि पर राज्य करे, किन्तु यह केवल हृदय की अभिलाषा मात्र है, क्योंकि वास्तविकता कुछ और थी। ऐतरेय ब्राह्मण (१२१११) में आया है कि वध अपने श्वशर से लज्जा करती है और अपने को छिपाकर चली जाती है। इससे प्रकट होता है कि गुरुजनों के समक्ष नवयुवतियों पर कुछ प्रतिबन्ध था। किन्तु गृह्य एवं धर्म-सूत्रों में इधरउधर जनसमुदाय में घूमती हुई स्त्रियों के परदे के विषय में कोई संकेत नहीं प्राप्त होता। पाणिनि (३।।२६) ने 'असूर्यपश्या' (जो सूर्य को भी नहीं देखती) की, जो रानियों के लिए प्रयुक्त हुआ है, व्युत्पत्ति की है। इससे केवल इतना ही प्रकट होता है कि रानियाँ राजप्रासादों की सीमा के बाहर जन-साधारण के समक्ष नहीं आती थीं। रामायण (अयोध्याकाण्ड ३३।८) में आया है कि आज सड़क पर चलते हुए लोग उस सीता को देख रहे हैं, जिसे पहले आकाशगामी जीव भी न देख सके थे। वहीं आगे (युद्ध० ११६।२८) फिर आया है-"विपत्ति के समय, युद्धों में, स्वयंवर में, यज्ञ में एवं विवाह में स्त्री का बाहर जनता में आना कोई अपराध नहीं है।" सभापर्व (६९।९) में द्रौपदी कहती है-"हमने सुना है, प्राचीन काल में लोग विवाहित स्त्रियों को जनसाधारण की सभा या समूह में नहीं ले जाते थे, चिर काल से चली आयी हुई प्राचीन प्रथा को कौरवों ने तोड़ दिया है।" द्रौपदी का दर्शन राजाओं ने स्वयंवर के समय किया था, उसके उपरान्त युधिष्ठिर द्वारा जुए में हार जाने पर ही लोगों ने उसे देखा।" इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि उच्च कुल की नारियाँ कुछ विशेष अवसरों को छोड़कर बाहर नहीं निकलती थीं, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे परदा (अवगुण्ठन) करती थीं। शल्यपर्व (२९।७४) में आया है कि कौरवों की पूर्ण हार के उपरान्त उनकी स्त्रियों को, जिन्हें सूर्य भी नहीं देख सकता था, राजधानी में आये हुए लोग देख रहे थे। और देखिए इस विषय में सभापर्व (९७४-७), शल्यपर्व (१९।६३), स्त्रीपर्व (९.९-१०), आश्रमवासिपर्व (१५।१३)। हर्षचरित (४) में आया है कि राजकुमारी राज्यश्री, जिसे उसका भावी पति ग्रहवर्मा विवाह के पूर्व देखने आया था, अपने मुख पर सुन्दर लाल रंग का परिधान डाले थी। एक अन्य स्थान पर स्थाण्वीश्वर (थानेसर) का वर्णन करते समय बाण कहता है कि नारियाँ अवगुण्ठन डाले हुए थीं। कादम्बरी में भी बाण ने पत्रलेखा को लाल रंग के अवगुण्ठन के साथ चित्रित
११. (१) या न शक्या पुरा वष्टं भूतैराकाशगरपि । तामद्य सीता पश्यन्ति राजमार्गगता जनाः॥ अयोध्याकाण्ड ३३३८; व्यसनेषु न कृच्छेषु न युद्धेषु स्वयंवरे। न ऋतौ नो विवाहे वा दर्शनं दृष्यते स्त्रियः॥ युद्धकाण ११६॥२८॥
(२) धा स्त्रियं सभा पूर्वे न नयन्तीति नः श्रुतम्। स नष्टः कौरवेयेषु पूर्वो धर्मः सनातनः। समापर्ष ६९।९।
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