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धर्मशास्त्र का इतिहास
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विश्वरूप ( याज्ञवल्क्य ३।२६८ ) ने लिखा है कि नीच जाति के साथ ( गौतम २३|१४, मनु ८|३७१ ) व्यभिचार करने पर स्त्री को केवल राजा ही प्राण-दण्ड दे सकता है, यद्यपि ऐसा करने पर राजा को हलका प्रायश्चित्त भी करना पड़ जाता था । मनु (९।१९० ) के अनुसार नारी के हत्यारे के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नही रखना चाहिए, भले ही उसने उचित प्रायश्चित्त कर लिया हो । मनु (९।२३२ ) ने स्पष्ट लिखा है -- "स्त्रियों, बच्चों एवं ब्राह्मणों की हत्या करने वाले को राजा की ओर से प्राण दण्ड मिलना चाहिए।" महाभारत ने भी इस साहसपूर्ण नियम की ओर संकेत किया है। आदिपर्व ( १५८।३१ ) कहता है -- "धर्मज्ञ लोग घोषित करते हैं कि स्त्रियों की हत्या नहीं करनी चाहिए।" सभापर्व (४१-४३ ) में व्यवस्था है -- "स्त्रियों, गायों, ब्राह्मणों तथा उसकी ओर जिसने जीविका या आश्रय दिया है, आयुध नहीं चलाना चाहिए।" शान्तिपर्व ( १३५ । १४ ) में ऐसा निर्देश आया है कि चोर भी स्त्रियों की हत्या न करें (और देखिए आदिपर्व १५५१२, २१७१४, वनपर्व २०६।४६ ) । रामायण ( बालकाण्ड) में भी यही बात पायी जाती है जब कि राम को ताड़का नामक राक्षसी के मारने के लिए प्रेरित किया गया था ।
याज्ञवल्क्य (२।२८६) ने नीच जाति के साथ व्यभिचार करने पर स्त्री के लिए कान काट लेने का दण्ड बतलाया है । वृद्ध हारीत (७।१९२) ने पति एवं भ्रूण की हत्या करने पर स्त्री की नाक, कान एवं अधर काट लेने की व्यवस्था दी है। देखिए याज्ञवल्क्य २।२७८-२७९, जिसमें कुछ विशिष्ट अपराधों के लिए स्त्री को प्राण-दण्ड तक दे देने की व्यवस्था दी गयी है ।
यह हमने बहुत पहले देख लिया है कि स्त्रियाँ क्रमशः उपनयन, वेदाध्ययन तथा वैदिक मन्त्रों के साथ सस्कारसम्पादन के सारे अधिकारों से वञ्चित होती चली गयीं, और इस प्रकार वे पूर्णत: पुरुषों पर आश्रित हो गयीं । उनकी दशा, इस प्रकार, शूद्र की दशा के समान हो गयी।' सभी द्विजों को पवित्र होने के लिए तीन बार आचमन करना आवश्यक है । किन्तु नारी एवं शूद्र को केवल एक बार ( मनु ५। १३९, याज्ञवल्क्य १।२१ ) । द्विजातियाँ वैदिक मन्त्रों के साथ स्नान करती थीं, किन्तु स्त्रियाँ एवं शूद्र बिना मन्त्रों के, अर्थात् मौन रूप से । शूद्र एवं स्त्रियाँ आमश्राद्ध (बिना पके भोजन के साथ) करती थीं।' स्त्रियो एवं शूद्रों की हत्या पर समान दण्ड मिलता था ( बौधायनधसूत्र २।१।११-१२, पराशर ६।१६ ) । साधारणतः स्त्रियाँ, बच्चे एवं जीर्ण पुरुष साक्ष्य नहीं दे सकते थे (याज्ञवल्क्य २।७०, नारद, ऋणादान १७८, १९०, १९२), किन्तु मनु ( ८1६७-७० ), याज्ञवल्क्य (२।७२) एवं नारद (ऋणादान १५५) ने स्त्रियों के झगड़ों में स्त्रियों को साक्ष्य देने को कह दिया है। अन्य साक्षियों के अभाव में स्त्रियाँ चोरी, व्यभिचार एवं अन्य शक्ति सम्बन्धी अपराधों में साक्ष्य दे सकती थीं। मेट दान, भूमि एवं घर की बिक्री एवं बन्धक में स्त्रियों द्वारा लिखे गये कागद-पत्र साधारणतः अस्वीकृत माने जाते थे; ऐसी लिखापढ़ी बलात्कार या धोखे से की
७. अवध्या स्त्रिय इत्याहुर्ष मंज्ञा धर्मनिश्चये । आदिपर्व १५८।३१; स्त्रीषु गोषु न शस्त्राणि पातयेद् ब्राह्मणेषु च । यस्य चान्नानि भुञ्जीत यत्र च स्यात्प्रतिश्रयः ॥ सभापर्व ४१।१३ ।
८. "स्त्रीशूद्राश्च सधर्माणः" इति वाक्यात् । व्यवहारमयूख, पृ० ११२; द्विजस्त्रीणामपि श्रतज्ञानाम्यासेऽधि - कारिता । वदन्ति केचिद्विद्वांसः स्त्रीणां शूद्रसमानताम् ॥ सूतसंहिता ( शूद्रकमलाकर, पृ० २३१ में उद्धृत) ।
९. ब्रह्मक्षत्रविशां चैव मन्त्रवत्स्नानमिष्यते । तूष्णीमेव हि शूद्रस्य स्त्रीणां च कुरुनन्दन । विष्णु (स्मृतिधन्द्रिका १, पृ० १८१ में उद्धृत) ।
स्त्री शूद्रः श्वपचश्चैव जातकर्मणि चाप्यथ । आमश्राद्धं तथा कुर्याद्विधिना पार्वणेन तु ॥ प्रचेता (स्मृतिचन्द्रिका, श्राद्धप्रकरण, पृ० ४९१-९२ में उद्धृत) ।
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