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fran और पातक
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जाय और वह पुनः व्यभिचार में संलग्न न हो तो उसे पुनः पत्नी के सारे अधिकार मिल जाने चाहिए। "": मनु (११) १७७) ने अति दुष्टा एवं व्यभिचारिणी नारी को एक प्रकोष्ठ में बन्द कर देने को कहा है और व्यभिचारी पुरुषों द्वारा किये जाने वाले प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी है।" इस विषय में और देखिए अत्रि ( ५1१-५), पराशर (४।२० एवं १९८७) तथा बृहद्यग ( ४१३६ ) ।
उपर्युक्त विवेचनों के उपरान्त हम निम्न निष्कर्ष निकाल सकते हैं- (१) व्यभिचार के आधार पर पति पत्नी को छोड़ने का सम्पूर्ण रूप से अधिकारी नहीं है । ( २ ) व्यभिचार साधारणतः एक उपपातक है और पत्नी द्वारा उपयुक्त 'प्रायश्चित्त करने पर क्षम्य हो सकता है। (३) व्यभिचार करने के उपरान्त प्रायश्चित्त कर लिये जाने पर पत्नी के सारे अधिकार पुनः मिल जाते हैं (वसिष्ठ २१।१२, याज्ञवल्क्य १।७२ पर मिताक्षरा एवं अपरार्क, पृ० ९८) । (४) जब तक प्रायश्चित्त न पूरा हो जाय, व्यभिचारिणी को अल्प भोजन मिलना चाहिए और अधिकार- च्युत होना चाहिए (याज्ञवल्क्य १।७०, शान्तिपर्व १६५ / ६३ ) | ( ५ ) शूद्र से व्यभिचार कर लेने पर यदि पत्नी को बच्चा हो जाय, यदि वह भ्रूण हत्या की अपराधिनी हो, पति को मार डालने की चेष्टा करने वाली हो, या किसी महापातक
अपराधिनी हो, तो वह धार्मिक कृत्यों तथा संभोग के सारे अधिकारों से वंचित हो जायगी, एक कोठरी या घर के निकट ही किसी झोपड़ा में बन्द रहेगी, जहाँ उसे अल्प भोजन तथा निकृष्ट वस्त्र मिलेगा, भले ही उसने प्रायश्चित्त कर लिया हो ( देखिए वसिष्ठ २१ १०, मनु ११।१७७, याज्ञवल्क्य ३।२९७-९८ तथा उस पर मिताक्षरा ) । (६) जो पत्नी याज्ञवल्क्य (१।७२, ३।२९७ - २९८), वसिष्ठ ( २१।१० या २८।७ ) में वर्णित दुष्कर्मों को न करने वाली हो, उसे अल्प भोजन तथा घर के निकट निवास स्थान दिया जायगा, चाहे वह प्रायश्चित्त करे या न करे ( याज्ञवल्क्य ३ । २९८ पर मिताक्षरा ) । (७) उन पत्नियों को, जो व्यभिचार तथा याज्ञवल्क्य ( १।७२ तथा २।२९७ - २९८) द्वारा वर्णित दुष्कर्मों को करने वाली हों किन्तु प्रायश्चित्त करने के लिए सन्नद्ध न होती हों, अल्प भोजन तथा घर के निकट निवासस्थान भी नहीं दिये जाने चाहिए (याज्ञवल्क्य ३ । २९८ पर मिताक्षरा ) ।
आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।१३।१६-१८) ने पति-पत्नी को धार्मिक कृत्यों में समान नाना है, क्योंकि मनु के मत से पति और पत्नी एक ही हैं ( मनु ९।४५ ) । किन्तु प्राचीन ऋषियों ने व्यावहारिक एवं कानूनी बातों में यह समानता नहीं मानी। एक-दूसरे की सम्मति पर पति एवं पत्नी के अधिकारों एवं स्वत्वों तथा एक-दूसरे के ऋणों पर पति एवं पत्नी के उत्तरदायित्व पर हम विस्तार के साथ आगे पढ़ेंगे । यहाँ इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि पत्नी का पति के ऋण पर तथा पति का पत्नी के ऋण पर साधारणतः कोई उत्तरदायित्व नहीं था, जब तक कि वह ऋण कुटुम्ब के उपमोग के लिए न लिया गया हो ( याज्ञवल्क्य २/४६ ) । इसी प्रकार स्त्रीधन पर पति का कोई अधिकार नहीं था, जब तक कि अकाल न पड़े या कोई धार्मिक कृत्य करना आवश्यक. न हो जाय, या कोई रोग न हो जाय या स्वयं पति बन्दी न हो जाय ( याज्ञवल्क्य २ ।१४७ ) ।
नारद (स्त्रीपुंस, ८९ ) के मत वे पति या पत्नी को यह आज्ञा नहीं है कि से एक-दूसरे के विरुद्ध राजा
२०. व्यभिचार स्त्रिया मौण्ड्यमधः शयनमेव च । कदनं वा कुवासश्च कर्म चावस्करोमन्दम् ॥ नारद ( स्त्रीपुंस, ९१ ) । व्यभिचारेण तुष्टां तां पत्नीमा दर्शनावृतोः । हृतत्रिवर्ग करणां धिक्कृतां च वसेत्पतिः ॥ पुनस्तामार्तवस्तात पूर्ववद् व्यवहारयेत् ॥ व्यास ( २।४९-५० ) ।
२१. व्यभिचारी की जाति के अनुसार ही प्रायश्चित्त हलका या भारी होता है। मनु (११।६०) के अनुसार defear एक उपries है, और इसके लिए साधारण प्रायश्चित्त है गोव्रत या चान्द्रायण ( मनु ११०११८ )
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