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विवाह की पता बात कात्यायन में भी पायी जाती है; 'यदि कन्या के चुनाव के उपरान्त वर मर जाय या उसके विषय में कुछ भीमात न हो सके, तो तीन महीनों के उपरान्त कन्या का विवाह किसी अन्य व्यक्ति से हो सकता है। यदि कोई व्यक्ति लड़की के लिए शुल्क देकर तथा उसके लिए स्त्री-धन देकर कहीं बाहर चला जाय, तो वह लड़की साल भर तक अविवाहित रखकर किसी अन्य को विवाह में दी जा सकती है।' मनु (८।२२७) ने लिखा है--"वैदिक मन्त्र विवाह तथा पत्नीत्व के सूचक होते हैं, किन्तु विज्ञ लोग अन्तिम स्वरूप सप्तपदी के उपरान्त ही मानते हैं।" यह बात अपरार्क ने यातवल्क्य (११६५) की टीका में लिखी है (पृ० ९४)। और देखिए उद्वाहतत्त्व (पृ० १२९)। उपर्युक्त बातों से स्पष्ट होता है कि सप्तपदी के उपरान्त विवाह अन्यथा नहीं समझा जा सकता। सप्तपदी के पूर्व ही यदि वर की मृत्यु हो जाय, तो वधू कुमारी रह जाती है, विधवा नहीं होती और उसका विवाह पुनः हो सकता है। विवाह के सबसे महत्वपूर्ण कृत्य हैं होम एवं सप्तपदी। यही बात महाभारत (द्रोणपर्व ५५।१५-१६) में भी है, यहां सप्तपदी को ही अन्तिम महत्ता प्राप्त है। पत्नीत्व का पद सप्तपदी के उपरान्त ही प्राप्त होता है। कामसूत्र (३।५।१३) के अनुसार अग्नि के साक्ष्य के उपरान्त विवाह अन्यथा नहीं सिद्ध किया जा सकता। शूद्रों के विषय में वैदिक मन्त्र नहीं पढ़े जाते, अतः वहाँ परम्पराएं एवं रूढियो मान्य होती है। गृहस्थरत्नाकर जैसे निबन्धों के मत से शूद्रों के विषय में कन्या द्वारा वर के परिधान का स्पर्श ही विवाह के सम्पादन का द्योतक है।
मनु (९:४७) के मत से दाय-विभाजन एक बार ही होता है, कुमारी एक ही बार विवाहित होती है। इससे स्पष्ट है कि सप्तपदी के उपरान्त कन्या किसी अन्य से विवाहित नहीं की जा सकती। किन्तु एक वर के विषय में प्रतिश्रुत होने पर यदि कोई दूसरा अच्छा वर मिल जाय तो पिता अपना वचन तोड़ सकता है और अपनी कन्या किती से विवाहित कर सकता है (मनु ९७१ एवं ८१९८)। याज्ञवल्क्य (१९६५) कहते हैं-"कन्या एक ही बार दी जाती है, यदि कोई व्यक्ति एक स्थान पर प्रतिश्रुत होने पर कहीं और विवाह कर देता है तो उसे चोर का दण्ड दिया जायना। किन्तु यदि उसे कहीं पहले से 'अच्छा वर' मिल जाता है तो वह पहले वर को त्याग सकता है।" महाभारत (अनुशासन पर्व ४४१३५) के अनुसार पाणिग्रहण तक कन्या को कोई भी मांग सकता है। यही बात नारद में भी पायी जाती है। इसी प्रकार वर के पक्ष में भी बातें कही गयी है। यदि प्रतिश्रुत हो जाने पर वर को पता चलता है कि उसकी बाली पत्नी रोगी है, उसका सतीत्व नष्ट हो चुका है, या कई बार पोखे से लोगों को दी जा चुकी है तो वह उससे विवाह नहीं भी कर सकता है (मनु ९।७२)। यदि कोई अभिभावक कन्या के दोष को सिपाकर उसका विवाह कर देता है और विवाहोपरान्त भेद खुल जाता है तो उसे याज्ञवल्क्य (११६६) के अनुसार बहुत अधिक तया नारद (स्त्रीपुंस, ३३) के मत से बहुत कम दण्ड दिया जाता है। अपराकं (पृ. ९५) के अनुसार बताया गया दोष गुप्त होना चाहिए, नकि लक्षित एवं जान दिया जाने वाला। यदि कोई वर दोषहीन लड़की का परित्याग करता है तो उसे कठोरातिकठोर दण्ड मिलना चाहिए; यदि वह उसे झूठ-मूठ दोषी ठहराता है तो उस पर एक सौ पण का दण्ड लगना चाहिए (पानवलप १।६६ एवं नारद, स्त्रीपुंस, ३४) । नारद के अनुसार जो व्यक्ति दोषहीन लड़की को छोड़ता है उसे दण्डित होना चाहिए और उसी के साथ विवाहित भी रहना चाहिए।
कुछ स्मृतियाँ एवं निबन्ध विवाहकत्य के समय तुमती लड़की के विषय में अपनी विभिन्न धारणाएं उपस्थित करते हैं। अधि (भाग १, पृ० ११) के अनुसार कन्या को हविष्मती मन्त्र (ग्वेद १०१८८९या ८७२११) के साथ स्नान कराकर तथा दूसरा वस्त्र पहना और घृत की आहुति देकर ऋग्वेद के ५।८११ मन्त्र के साथ कुत्य समाप्त कर देने चाहिए। किन्तु स्मृत्यर्थसार (पृ० १७) ने दूसरी विधि दी है। तीन दिनों के उपरान्त चौथे दिन पर एवं को स्नान कराकर उसी आग्न में होम करा देना चाहिए।
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