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लिमही
३०५ हस्वस्पर्श (मन्त्र के साथ बघू के हथका स्पर्म)-देखिए पारस्कर० (११८), भारद्वाज० (२०१७), जोषायन० (१।४।१)।
प्रेक्षकानुमत्रच (बव विवाहित दम्पति की मार सकेत करके दर्शकों को सम्बोषित करना)-देखिए मानव० (१।१२।१), पारस्कर० (१०८)। दोनों ने ऋग्वेद के मन्त्र (१०८५।३३) के उच्चारण की बात कही है।
रक्षिमावान (क्षाचार्य को भेंट)-वेलिए पारस्कर० (१०८), शांखायन० (११४।१३-१७)। दोनों ने ब्राह्मणों के विवाह में एक गाय, राषायों एवं बड़े लोगों के विवाह में एक प्राम, वैश्य के विवाह में एक घोड़ा आदि देना कहा है। मोमिल० (२२३३) एवं बौधायन० (१॥४॥३८) ने केवल एक गाय देने की बात कही है।
गृहप्रवेश (बर के घर में प्रदेश)।
गृहप्रवेशनीम होम (बर के पूह में प्रवेश करते समय होम)-देखिए शांखायन० (१।१६।१-१२), गोमिल (२।३।८-१२) एवं आपस्तम्ब (६१६-१०)।
ध्रुवारन्धती-दर्शन (विवाह के दिन वधू को ध्रुव एवं अरुन्धती तारे की ओर देखने को कहना)--आश्वलायन (११७।७।२२) ने सप्तर्षि मण्डल को भी जोड़ दिया है। मानव० (१।१४।९) ने ध्रुव, अरुन्धती एवं सप्तर्षि मण्डल के साथ-साथ जीवन्ती को भी जोड़ दिया है। भाखाज० (१३१९) ने ध्रुव, अरुन्धती एवं अन्य नक्षत्रों के नाम लिये हैं। इसी प्रकार कई मत है। आपस्तम्ब० (६।१२) ने केवल ध्रुव एवं अरुन्धती की चर्चा की है। पारस्कर० (११८) ने केवल ध्रुव की बाल उठायी है। शांखायन० (१११७४२), हिरण्यकेशि० (१।१२।१०) ने वर-वधू को रात्रि भर मौन रहने को लिखा है, किन्तु आश्वलायन के मत से केवल वधू मौन रहती है। गोभिल० (२।३।८-१२)ने ध्रतारुन्धती-- दर्शन को बात गृहप्रवेश के पूर्व कही है।
आग्येय स्थालीपाक(अग्नि को भावान की आहुति देना)-देखिए आपस्तम्ब० (७।१-५), गोभिल० (२॥३॥ १९-२१), भारद्वाज० (१११८)।
त्रिरात्रवत (विवाह के उपरान्त बीन रात्रियों सक कुछ नियम पालन)-देखिए आश्वलायन०, जिसका वर्णन सभी सूत्रों में पाया जाता है। आपस्तम्ब० (८1८1१०) एवं बौधायन (१।५।१६-१७) के अनुसार नव-विवाहित दम्पति पृथ्वी पर एक ही शय्या पर तीन रात्रियों तक सोयेंगे, किन्तु अपने बीच में उदुम्बर की लकड़ी रखेंगे, जिस पर गन्ध का लेप हुआ रहेगा, वस्त्र या सूत्र बंधा रहेगा। चौथी रात्रि को वह लकड़ी ऋग्वेदीय (१०३८५।२१-२२) मन्त्र के साथ जल में फेंक दी जायगी।
पतु कर्म (विवाह के उपरान्त चौपी रात्रि का कृत्य)-इस संस्कार का वर्णन बहुत पहले हो चुका है।
मध्य काल के निबन्धों में कुछ अन्य कृत्य भी वणित हैं जो आधुनिक काल में किये जाते हैं। इनमें से कुछ का वर्णन हम करते हैं। इन कृत्यों के अनुक्रम में मतैक्य नहीं है।
सीमान्त-पूजन (अपू के ग्राम पर पर एवं उसके बल (बरात) के पहुंचने पर उनका सम्मान)--आधुनिक . काल में वाग्दान के पूर्व यह किया जाता है ; देखिए संस्कारकौस्तुम, पृ० ७६८ एवं धर्मसिन्धु ३, पृ० २६१ ।
हर-गौरी-पूजा (शिव एवं गौरी की पूजा)-देखिए संस्कारकौस्तुभ (पृ० ७६६), संस्काररत्नमाला (पृ० ५३४ एवं ५४४), धर्मसिन्धु (पृ० २६१) । गौरी और हर की मूर्तियाँ सोने या चाँदी की हों या उनके चित्र दीवार पर टेंगे रहें, या वस्त्र या प्रस्तर पर चित्र खींच दिये गये हों। इनकी पूजा कन्यादान के पूर्व, किन्तु पुण्याहवाचन के उपरान्त होनी चाहिए। देखिए लघु-आश्वलायन (१५६३५)।।
इन्द्राणी-पूजा (इन की रानी की पूजा)-देखिए संस्कारकौस्तुभ (पृ० ७५६), संस्काररत्नमाला (पृ० ५४५) । यह प्राचीन कृत्य रहा होगा, क्योंकि कालिदास ने रघुवंश (७३) में संभवतः इस ओर संकेत किया है (स्वयंवर
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