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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ३०२ यह गोत्र हो) उसके लिए तीन बार यह किया जाता है। तब वह हवि के शेषांश पर या जो छूट गया है उस पर घृत छोड़ता है। तब वर निम्न मन्त्रोच्चारण करता है - "अर्यमा देवता के लिए लड़कियों ने यज्ञ किया, वह देवता ( अर्यमा ) इस कन्या को (पिता से) मुक्त करें, किन्तु इस स्थान से (पति से) नहीं, स्वाहा । वरुण देवता के लिए लड़कियों ने यज्ञ किया, वह देवता मी..... पूषा देवता के लिए लड़कियों ने यज्ञ किया, अग्नि के लिए भी, वह पूषा...." इनके साथ कन्या अपने हाथों को फैलाकर लावा की हजि दे ( मानो दोनों हाथ स्रुची हैं) । बिना अग्नि की प्रदक्षिणा किये कन्या लावा की हवि चौथी बार मौन रूप से देती है । यह कार्य वह सूप को अपनी ओर करके करती है। कुछ लोग सूप में से लावा को गिराते समय अग्नि की प्रदक्षिणा भी कराते हैं, जिससे कि अन्तिम दो हवि लगातार न पड़ जायँ । तब वर कन्या के सिर के दो बाल-गुच्छ ढीले करता है और दाहिने को ढीला करते समय कहता है---"मैं तुम्हें वरुण के बन्धन से छुटकारा देता हूँ” (ऋग्वेद १०।८५१२४) । तब वह उसे उत्तर-पूर्व दिशा में सात पग इन शब्दों के साथ ले जाता है -- "तुम एक पग द्रव (रस) के लिए, दूसरा पग शक्ति के लिए, तीसरा धन के लिए, चौथा आराम के लिए, पाँचवाँ सन्तान के लिए, छठा ऋतुओं के लिए रखो और मेरी मित्र बनो अतः सातवाँ पग रखो; तुम मेरी प्रिय बनो, हम बहुत से पुत्र पायें और वे दीर्घायु हों।" वर और कन्या के सिर को साथ मिलाकर आचार्य कलश से उन पर जल छिड़कता है । उस रात्रि में कन्या ऐसी बूढ़ी ब्राह्मणी के घर में निवास करती है, जिसके पति एवं पुत्र जीवित रहते हैं। जब वह धुव तारा देख ले और अरुन्धती तारा एवं सप्तर्षिमण्डल देख ले तो उसे अपना मौन तोड़ना चाहिए और कहना चाहिए -- "मेरा पति जीये और मैं सन्तान प्राप्त करूँ ।" यदि विवाहित दंपति को सुदूर ग्राम में जाना हो तो पत्नी को रथ में इस मन्त्र के साथ बैठाये -- " पूषा तुम्हें यहाँ से हाथ पकड़कर ले चले” (ऋग्वेद १०८५ | २६ ) ; वह उसे नाव में बैठाये तब श्लोकार्थं पढ़े "प्रस्तरों को ढोती ( नदी अश्मन्वती) बहती है; तैयार हो जाओ" (ऋग्वेद १०।५३३८) । यदि वह रोती है, तो उसे यह कहना चाहिए कि वे जीनेवाले के लिए रोते हैं (ऋग्वेद १०।४०।१० ) । साथ में विवाह की अग्नि आगे-आगे ले जायी जाती है । रमणीक स्थानों, पेड़ों, चौराहों पर पति यह कहता है - "रास्ते में डाकू न मिलें" (ऋग्वेद १०।८५ १३२) । मार्ग में बस्तियाँ पड़ने पर देखने वाले को देखकर मन्त्रोच्चारण करे -- " यह नवविवाहित वधू भाग्य ला रही है" (ऋग्वेद १०।८५१३३) । वह उसे गृह में प्रवेश कराते समय यह कहे - " यहाँ सन्तानों के साथ तुम्हारा सुख बढ़े " ऋग्वेद १९८५/३७ ) । विवाह की अग्नि में लकड़ियाँ छोड़कर और उसके पश्चिम बैल की खाल बिछाकर उसे आहुति देनी चाहिए, तब तक उसकी वधू पार्श्व में बैठकर पति को पकड़े रहती है और प्रत्येक आहुति के साथ एक मन्त्र कहा जाता है और इस प्रकार चार मन्त्रों का उच्चारण होता है - "प्रजापति हमें सन्तान दे" (ऋग्वेद १०।८५१४३४६) । तब वह दही खाता है और कहता है- " समस्त देवता हमारे हृदयों को जोड़ दें" 'ऋग्वेद १०।८५/४७ ) । शेष दही वह पत्नी को दे देता है। उसके उपरान्त वे दोनों क्षार, लवण नहीं खायेंगे, ब्रह्मचर्य से रहेंगे, गहने नहीं धारण करेंगे, पृथिवी पर सोयेंगे ( चटाई पर नहीं ) । यह क्रिया ३ रातों, १२ रातों या कुछ लोगों के मत से साल भर तक चलेगी, तब उनका एक ऋषि (गोत्र) हो जायगा । जब ये सब कृत्य समाप्त हो जायें तो वर को चाहिए कि वह वघू के वस्त्र किसी ऐसे ब्राह्मण को दे दे, जो सूर्या सूक्त जानता है (ऋग्वेद १०।८५), तब वह ब्राह्मणों को भोजन कराये, इसके उपरान्त वह ब्राह्मणों से शुभ स्वस्तिवाचन का उच्चारण सुने । उपर्युक्त वर्णित विवाह-संस्कार में तीन भाग हैं। कुछ कृत्य आरम्भिक कहे जा सकते हैं, उनके उपरान्त कुछ ऐसे कृत्य हैं जिन्हें हम संस्कार का सार तत्त्व कह सकते हैं, यथा पाणिग्रहण, होम, अग्नि- प्रदक्षिणा एवं सप्तपदी, तथा कुछ कृत्य ऐसे हैं जो उक्त मुख्य कृत्यों के प्रतिफल मात्र हैं, यथा ध्रुव तारा, अरुन्धती आदि का दर्शन । मुख्य कृत्य सभी सूत्रकारों द्वारा वर्णित हैं, किन्तु आरम्भिक तथा अन्त वालों के विस्तार में पर्याप्त भेद है। यहाँ तक कि मुख्य कृत्यों के अनुक्रमों के विषय में भी कुछ ग्रन्थ मतैक्य नहीं रखते, अर्थात् कहीं एक कृत्य आरम्भ में है तो कहीं वह तीसरे या चौथे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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