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________________ अध्याय ८ आश्रम गत पृष्ठों में हमने ब्रह्मचर्य-सम्बन्धी कतिपय प्रश्नों पर विचार किया है। धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों के सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्मचर्य चार आश्रमों में सर्वप्रथम स्थान रखता है, अतः अन्य संस्कार अर्थात् विवाह संस्कार के विवेचन के पूर्व आश्रम-सम्बन्धी विचारों के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालना परमावश्यक है। अत्यन्त प्राचीन धर्मसूत्रों के समय में भी चारों आश्रमों की चर्चा हुई है, यद्यपि नामों एवं अनुक्रम में थोड़ा हेरफेर अवश्य पाया जाता है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।९।२१।१) के अनुसार आश्रम चार हैं, गार्हस्थ्य, गुरुगेह (आचार्यकुल) में रहना, मुनि रूप में रहना तथा वानप्रस्थ्य (वन में रहना)। गार्हस्थ्य को सर्वप्रथम स्थान देने का कारण सम्भवतः इसकी प्रभूत महत्ता है। गौतम (३।२) ने भी चार आश्रमों के नाम लिये हैं, यथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, भिक्षु एवं वैखानस। वानप्रस्थ को यहाँ वैखानस क्यों कहा गया है, इसका उत्तर आगे दिया जायगा। वसिष्टधर्मसूत्र (७।१-२) ने चार आश्रम गिनाये हैं-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं परिव्राजक। इसी धर्मसूत्र ने अन्यत्र (११।३४) यति शब्द का प्रयोग करके चौथे आश्रम के व्यक्ति की ओर संकेत किया है। बौधायनधर्मसूत्र (२।६।१७) ने भी वसिष्ठ की भांति चार नाम दिये हैं, किन्तु उसमें एक मनोरञ्जक सूचना यह दी गयी है कि प्रह्लाद के पुत्र असुर कपिल ने देवताओं की शत्रुता से ही यह विभाजन उत्पन्न किया जिसमें समझदार व्यक्ति को विश्वास नहीं करना चाहिए। मनु (६८७) ने चार आश्रमों के नाम दिये हैं और अन्तिम को उन्होंने यति तथा 'संन्यास' कहा है (६३९६)। स्पष्ट है, चौथे आश्रम को कई नामों से द्योतित किया गया है, यथा परिव्राट् या परिव्राजक (जो एक स्थान पर नहीं ठहरता, स्थान-स्थान में घूमा करता है), भिक्षु (जो भिक्षा मांगकर खा लेता है), मुनि (जो जीवन और मृत्यु के रहस्यों पर विचार करता है), यति (जो अपनी इन्द्रियों को संयमित रखता है)। ये शब्ब चौथे आश्रम के व्यक्तियों की विषेशताओं के सूचक हैं। आश्रमों के विषय में मनु का सिद्धान्त निम्न प्रकार का है-मानव-जीवन एक सौ वर्ष का होता है (शतायुर्व पुरुषः)। सभी ऐसी आयु नहीं पाते, किन्तु यह वह सीमा है जहाँ तक जीने की कोई भी आशा कर सकता है। इस आयु को हम चार भागों में बाँटते हैं। कोई भी यह नहीं कह सकता कि वह सौ वर्ष तक जियेगा ही, अतः उपर्युक्त चारों भागों में प्रत्येक की सीमा को २५ वर्ष तक रखना या बतलाना तर्कसंगत नहीं है। अतः आश्रम की लम्बाई कम या अधिक सम्भव है। मनु (४११) के अनुसार मनुष्य के जीवन का प्रथम भाग ब्रह्मचर्य है जिसमें व्यक्ति गुरुगेह में रहकर विद्याध्ययन करता है, दूसरे भाग में वह विवाह करके गृहस्थ हो जाता है और सन्तानोत्पत्ति द्वारा पूर्वजों के ऋण से तथा यज्ञ आदि करके देवों के ऋण से मुक्ति पाता है (मनु ५।१६९)। जब व्यक्ति अपने सिर पर उजले बाल देखता है तथा शरीर पर झुर्रियाँ देखता है तब वह वानप्रस्थ (मनु ६।१-२) हो जाता है। इस प्रकार वन में जीवन का तृतीयांश बिताकर शेष भाग को संन्यासी के रूप में व्यतीत करता है। ऐसे ही नियम अन्य स्मृतियों में भी हैं। 'आश्रम' शब्द संहिताओं या ब्राह्मण-ग्रन्थों में नहीं मिलता। किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि सूत्रों में पाये जानेवाले जीवन-भाग वैदिक काल में अज्ञात थे। हमने पहले ही देख लिया है कि 'ब्रह्मचारी' शब्द ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में पाया जाता है और ब्रह्मचर्य की चर्चा तैत्तिरीयसंहिता, शतपथब्राह्मण तथा अन्य वैदिक ग्रन्थों में हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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