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धर्मशास्त्र का इतिहास भारत (अनुशासनपर्व ३६।१५) में आया है कि घर पर वेद पढ़नेवाला निन्दास्पद है; रेभ्य यवक्रीत से योग्यतर इसी लिए हो सका कि उसने गुरु से शिक्षा पायी थी। मनु एवं अन्य स्मृतियों में आचार्य की महत्ता के विषय में कुछ मतान्तर है। मनु (२।१४६=विष्णुधर्मसूत्र ३०।४४) के अनुसार जनक और गुरु दोनों पिता हैं, किन्तु वह जनक (आचार्य), जो पूत वेद का ज्ञान देता है, उस जनक (पिता) से महत्तर है, जो केवल शारीरिक जन्म देता है, क्योंकि आध्यात्मिक विद्या में जो जन्म होता है वह ब्राह्मण के लिए इहलोक तथा परलोक दोनों में अक्षुण्ण एवं अक्षय होता है। किन्तु एक स्थान पर मनु (२।१४५) ने आचार्य को उपाध्याय से दस गुना, पिता को आचार्य से सौ गुना तथा माता को पिता से सहस्र गुनी उत्तम माना है। गौतम (२१५६) ने आचार्य को सभी गुरुओं में श्रेष्ठ माना है। किन्तु अन्य लोगों ने माता को ही सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया है। याज्ञवल्क्य (११३५) ने माता को आचार्य से श्रेष्ठ माना है। गौतम (१।१०-११), वसिष्ठधर्मसूत्र (३२१), मनु (२११४०) एवं याज्ञवल्क्य (१९३४) ने लिखा है कि जो ब्रह्मचारी का उपनयन करता है और उसे सम्पूर्ण वेद पढ़ाता है वही आचार्य है। निरुक्त (११४) ने लिखा है कि आचार्य विद्यार्थी को सम्यक् आचार समझने को प्रेरित करता है, या उससे शुल्क एकत्र करता है, या शब्दों के अर्थ एकत्र करता है या बुद्धि का विकास करता है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।१।१।१४) कहता है-"विद्यार्थी आचार्य से अपने कर्तव्य (आचार) एकत्र करता है, इसी लिए वह आचार्य कहलाता है।" मनु (२०६९) का कहना है कि आचार्य उपनयन करने के उपरान्त शिष्य को शौच (शारीरिक शुद्धता), आचार (प्रति दिन के जीवन में आधार के नियम), अग्नि में समिधा डालने एवं सन्या-पूजा के नियम सिखाता है। यही याज्ञवल्क्य (१।१५) का भी कहना है। यद्यपि आचार्य, गुरु एवं उपाध्याय शब्द समानार्थक रूप में प्रयुक्त होते हैं, किन्तु प्राचीन लेखकों ने उनमें अन्तर देखा है। मनु (२।१४१ एवं १४२) के अनुसार जो व्यक्ति किसी विद्यार्थी को वेद का कोई एक अंग या वेदांग का कोई अंश पढ़ाता है और अपनी जीविका इस प्रकार चलाता है, वह उपाध्याय है," और गुरु वह है जो बच्चे का संस्कार करता है और पालन-पोषण करता है। अन्तिम परिभाषा से गुरु तो पिता ही ठहरता है। वसिष्ठधर्मसूत्र (३।२२-२३), विष्णुधर्मसूत्र (२९।२) एवं याज्ञवल्क्य (११३५) ने मनु के समान ही उपाध्याय की परिभाषा की है। याज्ञवल्क्य (१९३४) के अनुसार गुरु वही है जो संस्कार करता है और वेद पढ़ाता है। स्पष्ट है, आरम्भ में पिता ही अपने पुत्र को वेद पढ़ाता था। वास्तव में, 'गुरु' शब्द पुरुष या स्त्री के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए अधिकतर प्रयुक्त होता था। विष्णुधर्मसूत्र (३२।१-२) के अनुसार पिता, माता एवं आचार्य तीन गुरु हैं और मनु (२।२२७-२३७) ने इन तीनों के लिए स्तुति-गान किये हैं। देवल के अनुसार पिता, माता, आचार्य, ज्येष्ठ भ्राता, पति (स्त्री के लिए) की गुरुओं में गणना होती है । मनु (२११४९) के अनुसार जो थोड़ा या अधिक ज्ञान देता है, वह गुरु है।५५
५४. प्राचीन काल से ही वेदांग छः माने गये हैं, यथा-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निक्क्त, छन्द (छन्दोविचिति), ज्योतिष । मुण्डकोपनिषद् (१।१५) ने इनके नाम दिये हैं, आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।३।८।१०-११) ने लिखा है-"पलंगो वेदः। छन्दा कल्पो व्याकरणं ज्योतिष निरुक्तं शिक्षा छन्दोविचितिरिति ।" शिक्षा में स्वर, ध्यान आदि का विवेचन रहता है, कल्प में वैदिक एवं घरेलू यज्ञों की विधि-क्रिया का वर्णन होता है, व्याकरण तो व्याकरण ही है, मिवक्त में सब्दों की व्युत्पत्ति पायी जाती है, छन्द में पत्र की मात्रा आदि का विवेचन होता है तथा ज्योतिष में खगोल विद्या का वर्णन पाया जाता है।
५५. प्रयः पुरुषस्यातिगुरवो भवन्ति । पिता माताचार्यश्च । विष्णुधर्मसूत्र ३२॥१-२; मन (२२२२५-२३२) के वचन वैसे ही हैं जैसे मत्स्यपुराण (२११।२०-२७) के ; मनु के २३०, २३१ एवं २३४; शान्तिपर्व के १०८।६,७ एवं १२
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