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________________ २१० धर्मशास्त्र का इतिहास चाहिए कि वह सन्ध्या न करनेवाले ब्राह्मणों से शूद्र का काम ले । सन्ध्या के गुणों के विषय में देखिए मनु ( २।१०२ ), बौधायनधर्म० (२।४।२५-२८), याज्ञवल्क्य ( ३।३०७ ) । जब व्यक्ति सूतक में पड़ा हो, घर में सन्तानोत्पत्ति के कारण अशौच हो, तो उसे जप तथा उपस्थान को छोड़कर केवल अर्ध्य तक सन्ध्या करनी चाहिए। आधुनिक काल में पुराणों एवं तन्त्रों से बहुत कुछ लेकर सन्ध्या क्रिया को बहुत विस्तार दे दिया गया है। संस्काररत्नमाला के अनुसार न्यास अवैदिक कृत्य है। न्यासों एवं मुद्राओं ( हाथों, अँगुलियों आदि के आसन, , आकृतियों) के लिए स्मृतिमुक्ताफल ( आह्निक, पृ० ३२८-३३३ ), स्मृतिचन्द्रिका ( भाग १, पृ० १४६ - १४८) अवलोकनीय हैं।" न्यास का एक विशिष्ट अर्थ होता है। यह वह क्रिया है जिसके द्वारा देवता या पवित्र बातों का आवाहन किया जाता है, जिससे वे शरीर के कुछ भागों में अवस्थित होकर उन्हें पवित्र बना दें और पूजा तथा ध्यान के लिए उन शरीरमांगों को योग्य बना दें। पुरुषसूक्त (ऋग्वेद १०/९०) के १६ मन्त्रों का आवाहन बांयें एवं दाहिने हाथों में, बांयें एवं दाहिने पाँवों में, बांयें एवं दाहिने घुटनों में, बांयें एवं दाहिने भागों में, नाभि, हृदय एवं कण्ठ में, बांयी एवं दाहिनी भुजाओं में, मुंह, आँखों एवं सिर में अवस्थित होने के लिए किया जाता है। विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न बातें पायी जाती हैं, जिनका विवरण उपस्थित करना यहाँ सम्भव नहीं है। स्मृतिचन्द्रिका ( पृ० १४६ - १४८) ने मुद्राओं ( हस्ताकृतियों) के विषय में एक लम्बा उद्धरण दिया है। पूजाप्रकाश ( पृ० १२३ ) में उद्धृत संग्रह में आया है कि पूजा, ध्यान, काम्य ( किसी कामना से किये गये कृत्य ) आदि कामों में मुद्राएँ बनायी जाती हैं और इस प्रकार देवता पूजक के सन्निकट लाया जाता है। मुद्राओं के नामों एवं संख्याओं में मतभेद है। स्मृतिचन्द्रिका एवं वैद्यनाथ लिखित स्मृतिमुक्ताफल ( आह्निक, पृ० ३३१-३३२ ) में इन मुद्राओं की चर्चा हुई है— सम्मुख, सम्पुट, वितत, विस्तृत, द्विमुख, त्रिमुख, अधोमुख, व्यापकाञ्जलिक, यमपाश, प्रथित, सम्मुखोन्मुख, विलम्ब, मुष्टिक, मीन, कूर्म, वराह, सिंहाक्रान्त, महाक्रान्त, मुद्गर एवं पल्लव । नित्याचारपद्धति ( १०५३३ ) के अनुसार 'मुद्रा' शब्द 'मुद्' (प्रसन्नता) एवं 'रा' (देना) से बना है। मुद्रा देवता को प्रसन्न रखती है और असुरों से (दुष्ट आत्माओं से) मुक्त कराती है। इस ग्रन्थ तथा पूजाप्रकाश में पूजन सम्बन्धी मुद्राओं के नाम मिलते हैं। यथा-आवाहनी, स्थापनी, सन्निधापनी, संरोधिनी, प्रसादमुद्रा, अवगुण्ठन-मुद्रा, सम्मुख, प्रार्थन, शंख, चक्र, गदा, अन्ज (पद्म), मुसल, खड्ग, धनुष, बाण, नाराच, कुम्भ, विघ्न (विघ्नेश्वर के लिए), सौर, पुस्तक, लक्ष्मी, सप्तजिह्न (अग्नि के लिए), दुर्गा, नमस्कार, अञ्जलि, संहार आदि ( कुल ३२ मुद्राएँ हैं) । नित्याचारपद्धति ( पृ० ५३६ ) के अनुसार शंख, चक्र, गदा, पद्म, मुसल, खड्ग, श्रीवत्स एवं कौस्तुभ भगवान् विष्णु की आठ मुद्राएँ हैं। स्मृतिचन्द्रिका द्वारा उद्धृत महासंहिता के मत से मुद्राएँ भीड़-भाड़ में नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उससे देवता कुपित हो जाते हैं और मुद्राएँ विफल हो जाती हैं। शारदातिलक ( २३|१०६) ने लिखा है कि मुद्राओं से देवता प्रसन्न होते हैं। इसके मत से मुद्राएँ ये हैं—आवाहनी, स्थापनी, संनिधापनी, संरोधिनी, सम्मुख, सकल, अवगुण्ठन, धेनु, महामुद्रा । वर्धमान सूरि ५१. तत्रक्रियाओं का स्मृतियों एवं भारतीय जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है, इस विषय में कुछ अंग्रेजी की पुस्तकें एवं लेख अवलोकनीय हैं, यथा- 'दि इंट्रोडक्शन टु साधनमाला भता २, गायकवाड़ ओरिटियल सीरीज 'इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टली; भाग ६, पृ० ११४, भाग २, पृ० ६७८, भाग १०, १० ४८६-९२; सिलवेस लेवी की भूमिका -- बालि द्वीप की संस्कृत पुस्तकें (भाडर्न रिव्यू, अगस्त १९३४, पृष्ठ १५०-५६ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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