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________________ २१८ धर्मशास्त्र का इतिहास होते हैं, जो भली भाँति बटे एवं मांजे हुए रहते हैं। देवल ने नौ तन्तुओं (धागों) के नौ देवताओं के नाम लिखे हैं, यथा ओंकार, अग्नि, नाग, सोम, पितर, प्रजापति, वायु, सूर्य एवं विश्वेदेव । यज्ञोपवीत केवल नामि तक, उसके आगे नहीं और न छाती के ऊपर तक होना चाहिए। मनु (२।४४) एवं विष्णुधर्मसूत्र (२७।१९) के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के लिए यज्ञोपवीत क्रम से रुई, शण (सन) एवं ऊन का होना चाहिए। बौधायनधर्मसूत्र (१।५।५) एवं गोभिलगृह्यसूत्र (१।२।१) के अनुसार यज्ञोपवीत रुई या कुश का होना चाहिए; किन्तु देवल के अनुसार सभी द्विजातियों का यज्ञोपवीत कपास (रुई), क्षुमा (अलसी या तीसी), गाय की पूंछ के बाल, पटसन वृक्ष की छाल या कुश का होना चाहिए। इनमें से जो भी सुविधा से प्राप्त हो सके उसका यज्ञोपवीत बन सकता है। यज्ञोपवीत की संख्या में परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन पाया जाता था। ब्रह्मचारी केवल एक यज्ञोपवीत धारण करता था और संन्यासी, यदि वह पहने तो, केवल एक ही धारण कर सकता था। स्नातक (जो ब्रह्मचर्य के उपरान्त गुरुगेह से अपने माता-पिता के घर चला आता था) एवं गृहस्थ दो यज्ञोपवीत तथा जो दीर्घ जीवन चाहे वह दो से अधिक यज्ञोपवीत पहन सकता था। जिस प्रकार से आज हम यज्ञोपवीत धारण करते हैं, वैसा प्राचीन काल में नियम था या नहीं, स्पष्ट रूप से कह नहीं सकते, किन्तु ईसा के बहुत पहले यह ब्राह्मणों के लिए अपरिहार्य नियम था कि वे कोई कृत्य करते समय यज्ञोपवीत धारण करें, अपनी शिखा बाँध रखें, क्योंकि बिना इसके किया हुआ कर्म मान्य नहीं हो सकता। वसिष्ठ (८।९) एवं बौधायनधर्मसूत्र (२।२।१) के अनुसार पुरुष को सदा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। उद्योगपर्व (महाभारत) का ४०।२५ भी पठनीय है। यदि कोई ब्राह्मण बिना यज्ञोपवीत धारण किये मोजन कर ले २४. कौशं सूत्रं वा त्रिस्त्रिवृयज्ञोपवीतम् । आ नाभः। बौ० ५० १५।५; उक्तं देवलेन-यज्ञोपवीतं कुर्वोत सूत्रेण नवतन्तुकम्--इति । स्मृतिचन्द्रिका, भाग १, पृ० ३१ । २५. अत्र प्रतितन्तु देवताभेदमाह देवलः । ओंकारः प्रथमस्तन्तुद्वितीयोऽग्निस्तथवच । तृतीयो नागदेवत्यश्चतुर्थों सोमदेवतः । पञ्चमः पितृदेवत्यः षष्ठश्चैव प्रजापतिः। सप्तमो वायुदेवत्यः सूर्यश्चाष्टम एव च ॥ नवमः सर्वदेवत्य इत्येते नज तन्तवः ॥ स्मृतिच०, भाग १, पृ० ३१॥ ___ २६. कात्यायनस्तु परिमाणान्तरमाह। पृष्ठवंशे च नाम्यां च धृतं यद्विन्दते कटिम् । तवार्यमुपवीतं स्यानातिलम्बं न चोच्छितम् . . . देवल। स्तनादूध्वंमधो नाभेर्न कर्तव्यं कथंचन । स्मृतिचन्द्रिकर, वही, पृ० ३१ । २७. कासक्षौमगोबालशणवल्कतृणोद्भवम् । सदा सम्भवतः कार्यमुपवीतं द्विजातिभिः॥ पराशरमाधवीय (१२) एवं वृक्ष हारीत (७५४७-४८) में यही बात पायी जाती है। २८. स्नातकानां तु नित्यं स्यादन्तर्वासस्तयोत्तरम् । यज्ञोपवीते द्वे यष्टिः सोदकश्च कमण्डलुः॥ वसिष्ठ १२॥१४; विष्णुधर्मसूत्र ७१३१३-१५ में भी यही बात है। मिताक्षरा ने याज्ञवल्क्य (१११३३) की व्याख्या में वसिष्ठ को उमृत किया है। मिलाइए मनु ४-३६; एककमुपवीतं तु यतीनां ब्रह्मचारिणाम् । गृहिणां च वनस्थानामुपवीतद्वयं स्मृतम् ॥ सोतरीयं त्रयं वापि विभृयाच्छुभतन्तु वा। वृद्ध हारीत ८४४-४५ । देखिए देवल (स्मृतिव० में उकृत, भाग १, पृ० ३२) श्रीणि बत्वारि पञ्चाष्ट गृहिणः स्युर्दशापि वा। सर्वेर्वा शुसिभिर्धार्यमुपवीतं द्विजातिभिः॥ संस्कारमयूख में उदृत कश्यप। २९. नित्योदको नित्ययज्ञोपवीती नित्यस्वाध्यायो पतितान्नवर्जी। ऋतौ च गच्छन् विधिवच्च जुह्वान ब्राह्मणश्च्यवते ब्रह्मलोकात् ॥ असिष्ठ (८।९), बौधायनधर्मसूत्र (२२२२१), उद्योगपर्व (४०।२५) तन्त्रवातिक, पृ० ८९६ में प्रथम पाद उद्धृत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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