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________________ वर्णः; शूद्र की स्थिति, ब्राह्मण, क्षत्रिय ११३ आर्य-समाज के अन्तर्गत आ गये थे, किन्तु उनका स्थान बहुत नीचा था। उनमें और आर्यों के बीच एक स्पष्ट रेखा खींच दी गयी थी। यह बात ब्राह्मण ग्रन्यों एवं धर्मसूत्रों के वचनों से सिद्ध हो जाती है। गौतमवर्मसूत्र (१२॥३) में उस शूद्र के लिए, जो आर्य नारी के साथ सम्भोग करता था, कड़े दण्ड की व्यवस्था है। अपने पूर्वमीमासासूत्र (६।१। २५-३८) में जैमिनि बहुत विवेचन के उपरान्त सिद्ध करते हैं कि अग्निहोत्र एवं वैदिक यज्ञों के लिए शूद्रों को कोई अधिकार नहीं है। आश्चर्य एवं सन्तोष की बात यह है कि कम-से-कम एक आचार्य बादरि ने शूद्रों के अधिकारों के लिए मत प्रकाशित किया कि वे भी वैदिक यज्ञों के योग्य हैं ( ६।१।२७) । वेदान्तसूत्र (१॥३॥३४-३८) में आया है कि शूद्रों को ब्रह्मविद्या प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं है, यद्यपि कुछ शूद्र पूर्वजन्मों के कारण, यथा विदुर, ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। स्मृति-साहित्य में कुछ स्थलों पर आर्यों एवं शूद्र नारियों के विवाह के सम्बन्ध में छूट दी गयी है (इस बात पर आगे किसी अध्याय में चर्चा होगी)। शूद्रों के विषय में हम आगे भी कुछ विवरण उपस्थित करेंगे। यहां इतना ही पर्याप्त है। ऋग्वेद एवं ब्राह्मण ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य संहिताओं के वर्णन से स्पष्ट है कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों के कर्तव्यों में विभाजन-रेखाएँ स्पष्ट हो गयी थी। ऋग्वेद (४१५०।८) में उल्लेख है कि वह राजा, जो ब्राह्मण को सर्वप्रथम आदर देता है, अपने घर में सुख से रहता है। 'ब्राह्मण ऐसे देवता हैं, जिन्हें हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं (तै० स० ११७३।१)। 'देवताओं के दो प्रकार हैं; देवता तो देवता हैं ही, और ब्राह्मण भी, जो पवित्र ज्ञान का अर्जन करते हैं और उसे पढ़ाते हैं, मानव देवता हैं' (शत० ब्रा०)। अथर्ववेद (५।१७।१९) में ब्राह्मणों की महत्ता गायी गयी और उन्हें सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण (३३३४) में आया है कि जब वरुण से कहा गया कि राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र के स्थान पर ब्राह्मण-गुत्र की बलि दी जायगी, तो उन्होंने कहा--'हाँ, ब्राह्मण तो क्षत्रिय से उत्तम समझा ही जाता है। किन्तु शतपथ ब्राह्मण (५।१।१।१२) में आया है--'न वै ब्राह्मणो राज्यायालम्' अर्थात् ब्राह्मण राज्य के योग्य नहीं है। तैत्तिरीयोपनिषद् में आया है कि अश्वमेध के समय ब्राह्मण एवं राजन्य दोनों वीणा बजायें (दो ब्राह्मण नहीं), क्योंकि धन को ब्राह्मण के यहाँ आनन्द नहीं मिलता। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ब्राह्मणों के चार विलक्षण गुण हैं--ब्राह्मण्य (ब्राह्मण रूप में पवित्र माता-पिता वाला गुण, अर्थात् ब्राह्मण रूप में पवित्र पैतृकता), प्रतिरूपचर्या (पवित्राचरण), यश (महत्ता) एवं लोकपक्ति (लोगों को पढ़ाना या पूर्ण बनाना)। 'जब लोग ब्राह्मण से पढ़ते हैं या उसके द्वारा पूर्ण होते हैं तो वे उसे चार विशेषाधिकार देते हैं; अर्चा (आदर), दान, अज्येयता (कोई कष्ट नहीं देना) एवं अवध्यता।" शतपथ ब्राह्मण (५१४१६।९) में स्पष्ट रूप से आया है कि ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य एवं शूद्र चार वर्ण हैं। ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के विषय में हम आगे भी पढ़ेंगे। यहाँ इतना ही पर्याप्त है। अब हम संक्षेप में, क्षत्रियों की स्थिति के विषय में भी जानकारी कर लें। ऋग्वेद में कई स्थानों पर, यया १०।०२।१० एवं १०।९७१६ में राजन्' का अर्थ है 'बड़ा' या 'महान्' या 'प्रमुख'। कहीं-कहीं 'राजन्' का अर्थ है 'राजा'। ऋग्वेद के काल में राज्य वर्ग-सम्बन्धी था, यथा यदु लोग, तुर्वशु लोग, द्रुह्य लोग, अनु लोग, पुरु लोग, भृगु लोग, तृत्सु लोग। क्षत्रिय ही राजा होता था। जब राजा को मुकुट पहना दिया जाता था (राज्याभिषेक होता था) तो यही समझा जाता था कि एक क्षत्रिय सबका अधिपति, ब्राह्मणों एवं धर्म की रक्षा करनेवाला उत्पन्न किया गया है।" ९. प्रज्ञा वर्षमाना चतुरो धर्मान् ब्राह्मणमभिनिष्पादयति ब्राह्मण्यं प्रतिरूपचयीं यशो लोकपक्तिम् लोकः। पच्यमानश्चतुभिधमाह्मणं भुनक्त्यर्चया च दानेन चाज्येयतया चावध्यतया च । शतपथ० ११।५।७१ । १०. क्षत्रियोजनि विश्वस्य भूतस्याधिपतिरजनि विशामत्ताजनि...... ब्रह्मणो गोप्ताजनि धर्मस्य गोप्ताजनि। ऐतरेय ब्राह्मण ३८ एवं ३९।३। धर्म०-१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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