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________________ नाण पंचमी कहाओ जैन कथा साहित्यना आ विहंगावलोकन पछी एटलं कहेतुं जरूरी छे के जैन कथालेखकोनुं मूळ ध्येय एक ज हतुं अने ते आध्यात्मिक कल्याण. गमे ते जैन कथा ल्यो. आ ध्येय तेमां स्पष्टपणे प्रतिबिंबित थयेलुं देखा. कथा देह गमे ते होय अने गमे तेवो होय परंतु धर्माधर्मनुं, पुण्य-पापनुं फळ बताववानो आशय अने कर्मना अचळ सिद्धांतनी स्थापना माटेनी जैन कथा लेखकनी तालावेली - आ के मुख्य सिद्धांतो कथानो आत्मा छे. सामान्य लोकवार्ताओने पण जैन कथाकारोए पोताना अवनवा रंगे रंगी छे अने एना उपर पोताना ध्येयनी महोर मारी छे. सामान्य लोकवार्ताना संबंधमां पण आ ध्येय उग्रपणे सिद्ध करवामां आव्यो छे तो पछी खास विशिष्ट वस्तुनो आधार लई, जैन धर्मना मूळ तत्त्वोने प्रतिबोधवाना एक मात्र हेतुने खातर रचवामां आवेली कथा विषे तो कहेवानुं ज शुं ? हुंकामां, आ महोरनी विशिष्टता एवी कथाओमां उडीने आंखे चोंटे ए स्वाभाविक ज छे. महेश्वर सूरिनो प्रस्तुत ग्रंथ आ हरोळमां आवे छे. एनी मुख्य म ऐहिक अने पारलौकिक सुखनी प्राप्ति करावी आपवानी छे अने ते ज्ञान पंचमी जेवा पुण्य दिवसे जैन धर्मना आराधन द्वारा. कथानो प्रतिपाद्य विषय आ छे; बीजी बधी बाबतो आनुषंगिक छे. छंद, भाषा अने कवित्व ४४ समग्र ग्रंथमां एक ज छंद वापरवामां आवेल छे अने ते छे गाथा. भाषा माहाराष्ट्री प्राकृत छे. एना उपर कचित् अर्धमागधीनी तो कचित् अपभ्रंशनी असर पडेली छे. देशी शब्दोनो प्रयोग लेखके करेल छे. जेवां के:- कोड, खुखुत्र, फेक्कार, खत्थ, खेड, घग्घर, घल, चुक्क, चुल्ली, छडु, छुट्ट, छोड, छोल, झाड, डोल्ल, तु, तोड, धाडी, निच्छोल, पुक्कार, पोट्टल, फेड, फिट्ट, अने मोक्कल वगेरे वगेरे. लेखकनी शैल घणीज हृदयंगम, सरळ, अने प्रासादिक छे. एनं मुख्य लक्षण अनायास छे. शब्द प्रवाह सीधे सीधो, अस्खलितपणे लेखकना हृदयमांधी जाणे के न वहेतो होय एम लागे छे. अर्थ पकडी पाडवामां मुसीबतनो अनुभव जराय करवो पडतो नथी. शब्दाडंबर क्यांय नथी जणातो. शैलि कोई पण स्थळे खडबचडी नथी जाती. हृदयंगमता, प्रासादिकता, सरळता, सुबोधता, वगेरे वगेरे लेखकनी शैलिना गुणो छे. श्लेषनो उपयोग लेखके स्थळे स्थळे सफळताथी कर्यो छे. काव्यचमत्कृति लेखकने सिद्ध हती. तेना नमूना माटे जुओ खास करीने प्रथम कथानकनी ४१९मी, ४८८थी ४९२मी, आठमा कथानकनी १२० मी अने दसमा कथानकनी २९७ - २९८मी गाथाओ. आभार दर्शन आ ग्रंथना संपादनमां मारा विद्यागुरु भारतीय विद्याभवनना ऑन. डिरेक्टर आचार्यश्री जिनविजयजीए मने प्रतिओ मेळवी आपीने, जे गाथाओनो अर्थ मने बेसतो नो' तो ते समजावीने, संपादननी आंटी -घुंटीना उके मां यथोचित मदद आपीने, तेमज प्रस्तावनानी माहिति मेळववामां उपयोगी थाय एवं साहित्य सूचवी अने मेळवी आपीने मने जे अमर्याद सहाय आपी छे ते माटे हुं तेमनो परम ऋणी छं. अमृतलाल सवचंद गोपाणी. भारतीय विद्या भवन मुंबई माघ पूर्णिमा, सं. २००४ Jain Education International } For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002786
Book TitleGyanpanchami Katha
Original Sutra AuthorMaheshwarsuri
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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