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________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला त्यारे, तेओ पोतानी गादी उपर बेठा बेठा साहित्य, इतिहास, स्थापत्य, चित्र, विज्ञान, भूगोल के भूगर्भविद्याने लगता सामयिको के पुस्तको वांचता ज सदा देखाता हता. पोताना एवा विशिष्ट वाचनना शोखने लीधे तेओ इंग्रेजी, बंगाली, हिंदी, गुजराती आदिमां प्रकट थता उच्च कोटिना, उक्त विषयोने लगता विविध प्रकारनां सामयिक पत्रो अने जर्नल्स् आदि नियमित मगावता रहेता हता. आर्ट, आर्किऑलॉजी, एपीग्राफी, न्युमिस्मॅटिक, ज्योग्राफी, आइकोनोग्राफी, हिस्टरी भने माइनिंग आदि विषयोना पुस्तकोनी तेमणे पोतानी पासे एक सारी सरखी लाईब्रेरी ज बनावी लीधी हती. तेओ खभावे एकन्तप्रिय अने अल्पभाषी हता. नकामी वातो करवा तरफ के गप्पा सप्पा मारवा तरफ तेमने बहुज अभाव हतो. पोताना व्यावसायिक व्यवहारनी के विशाळ कारभारनी बाबतोमां पण तेओ बहु ज मितभाषी हता. परंतु ज्यारे तेमना प्रिय विषयोनी-जेवा के स्थापत्य, इतिहास, चित्र, शिल्प आदिनी-चर्चा जो नीकळी होय तो तेमां तेओ एटला निमग्न थई जता के कलाकोना कलाको वही जता तो पण तेओ तेथी थाकता नहीं के कंटाळता नहीं. तेमनी बुद्धि अत्यंत तीक्ष्ण हती. कोई पण वस्तुने समजवामां के तेनो मर्म पकडवामां तेमने कशी वार न लागती. विज्ञान अने तत्त्वज्ञाननी गंभीर बाबतो पण तेओ सारी पेठे समजी शकता हता अने तेमनु मनन करी तेमने पचावी शकता हता. तर्क अने दलीलमा तेओ म्होटा म्होटा कायदाशास्त्रीयोने पण आंटी देता. तेम ज गमे तेवो चालाक माणस पण तेमने पोतानी चालाकीथी चकित के मुग्ध बनावी शके तेम न हतुं. पोताना सिद्धान्त के विचारमा तेओ खूब ज मकम रहेवानी प्रकृतिना हता. एक वार विचार नक्की कर्या पछी अने कोई कार्यनो खीकार कर्या पछी तेमांथी चलित थवानुं तेओ बिल्कुलं पसंद करता नहीं. व्यवहारमा तेओ बहु ज प्रामाणिक रहेवानी वृत्तिवाळा हता. बीजा बीजा धनवानोनी माफक व्यापारमा दगा फटका के साच-झूठ करीने धन मेळयवानी तृष्णा तेमने यत्किंचित् पण थती न हती. तेमनी आवी व्यावहारिक प्रामाणिकताने लक्षीने इंग्लेंडनी मर्केन्टाईल बेंकनी डायरेक्टरोनी बॉर्डे पोतानी कलकत्तानी शाखानी बॉर्डमा, एक डायरेक्टर थवा माटे तेमने खास विनंति करी हती के जे मान ए पहेलां कोई पण हिंदुस्थानी व्यापारीने मळ्युं न्होर्नु. प्रतिभा अने प्रामाणिकता साथे तेमनामा योजनाशक्ति पण घणी उच्च प्रकारनी हती. तेमणे पोतानी ज खतंत्र बुद्धि अने कुशळता द्वारा एक तरफ पोतानी घणी मोटी जमीनदारीनी अने बीजी तरफ कोलीयरी विगेरे माइनींगना उद्योगनी जे सुव्यवस्था अने सुघटना करी हती ते जोईने ते ते विषयना ज्ञाताओ चकित थता हता. पोताना घरना नानामां नाना कामथी ते छेक कोलीयरी जेषा म्होटा कारखाना सुधीमा-के ज्यां हजारो माणसो काम करता होय-बहु ज नियमित, व्यवस्थित अने सुयोजित रीते काम चाल्यां करे तेवी तेमनी सदा व्यवस्था रहेती हती. छेक दरवानथी लई पोताना समोवडीया जेवा समर्थ पुत्री सुधीमां एक सर उच्च प्रकारचें शिस्त-पालन अने शिष्ट-आचरण तेमने त्यां देखातुं हतुं. सिंधीजीमां आवी समर्थ योजकशक्ति होवा छतां - अने तेमनी पासे संपूर्ण प्रकारनी साधनसंपन्नता होवा छता-तेओ धमालवाळा जीवनथी दूर रहेता हता अने पोताना नामनी जाहेरातने माटे के लोकोमा म्होटा माणस गणावानी खातर तेओ तेवी कशी प्रवृत्ति करता न हता. रावबहादुर, राजाबहादुर के सर-नाईट विगेरेना सरकारी खिताबो धारण करवानी के काउ. न्सीलोमा जई ऑनरेवल मेंबर बनवानी तेमने क्यारेय इच्छा थईन हती. एवी खाली आडम्बरवाळी प्रवृत्तिमा पैसानो दुर्व्यय करवा करता तेओ सदा साहित्योपयोगी अने शिक्षणोपयोगी कार्योमा पोताना धननो सद्व्यय करता हता. भारतवपनी प्राचीन कळा अने तेने लगती प्राचीन वस्तुओ तरफ तेमनो उत्कट अनुराग हतो अने तेथी ते माटे तेमणे लाखो रूपिया खा हता. सिंघीजी साथेनो मारो प्रत्यक्ष परिचय सन् १९३० मां शरु थयो हतो. तेमनी इच्छा पोताना सद्गत पुण्यलोक पिताना स्मारकमां जैन साहित्यनो प्रसार अने प्रकाश थाय तेवी कोई विशिष्ट संस्था स्थापन करवानो हतो. मारा जीवनना सुदीर्घकालीन सहकारी, सहचारी अने सन्मित्र पंडितप्रवर श्री सुखलालजी, जेओ बाबू श्री डालचंदजीना विशेष श्रद्धाभाजन होई श्री बहादुर सिंहजी पण जेमनी उपर तेटलो ज विशिष्ट सद्भाव धरावता हता, तेमना परामर्श अने प्रस्तावथी, तेमणे मने ए कार्यनी योजना अने व्यवस्था हाथमा लेवानी विनंति करी अने में पण पोताने अभीष्टतम प्रवृ. त्तिना आदर्शने अनुरूप उत्तम कोटिना साधननी प्राप्ति थती जोई तेनो सहर्ष अने सोल्लास स्वीकार कर्यो. सन् १९३१ ना प्रारंभ दिवसे, विश्ववंद्य कवीन्द्र श्री रवीन्द्रनाथ टागोरना विभूतिविहारसमा विश्वविख्यात शान्तिनिकेतनना विश्व भार ती- विद्या भवनमा 'सिंघी जैन ज्ञानपीठ' नी स्थापना करी अने त्यां जैन साहित्यना अध्ययन-अध्यापन अने संशोधन-संपादन आदिनुं कार्य चाल कयें. आ विषेनी केटलीक प्राथमिक हकीकत, आ ग्रंथमाळाना सौथी प्रथम प्रकट थएला 'प्रबन्धचिन्तामणि' नामना ग्रंथनी प्रस्तावनामां में आपेली छे, तेथी तेनी अहिं पुनरुक्ति करवानी जरूर नथी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002786
Book TitleGyanpanchami Katha
Original Sutra AuthorMaheshwarsuri
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages162
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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