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मधुबिन्दु- कूपनर - कथा ।
सुह-बिंदु इच्छंतो जलनिहि - विउलाणि सहइ दुक्खाणि । संते व मोक्ख सुक्खे महुबिंदू कूवयनरो व्व ॥ ५३ [ सुखबिन्दुमिच्छन् जलनिधि - विपुलानि सहते दुःखानि । सत्यपि मोक्ष- सौख्ये मधुबिन्दु कूप - नरवत् ॥ ५३ ] • [ ७३. मधुबिन्दु - कूपनर - कथा ] जह अडवीए मझे पुरिसो वणहत्थ- गोलिओ भीओ । धावतो' पासेसुं पेच्छइ पोंडरिय-मयनाहे ॥
विभीओओ ट्ठूणं रक्खसि अचाइतो । आरोढुं वडरुक्खं सुदीहरं तस्स हिट्ठम्मि ॥ अगडंमि देइ झंपं सर - खंभे लग्गिऊण से हिट्ठा । चिट्ठइ अइ (य) गरपावो कयंत सरिसेण वयणेण ॥ फुंकार - का ( फा ) र फणिणो अणवरयमभिद्दवंति चत्तारि । मूसा य क सिण-धवला निच्चं खायंति सर-खभं ॥ तुरिय- पहाविय - वणहत्थि - दिष्ण- वडपायवस्स अहंमि । महुणो फुङ्कं जालं समयं महुमच्छियाईहिं ॥ खायंति ताउ देहं कमेण महु- बिन्दुणो य उद्ध ( ड्ड ) - मुहो । आसाएंतो भणिओ आयास-गएण खयरेण ॥ गय-सीह-वग्घ- रक्खसि - अजगर - फणि-कूप- मूसय-भयाहिंतो । तारेमि की चिट्ठसि ? महु-बिंदु-पलोहिओ एत्थ ? ॥ सो भइ लंबमाणो महु-बिंदू जाव मज्झ वयमि । निवडइ ता तारेजसु एवं भणिओ मओ खयरो ॥ एसोवणओ इह अइ- समो इत्थ होइ संसारो । पुरिस समो संसारी वणहत्थि - सुविग्भमो मच्चू ॥ माह-वग्ध सरिसा राग-दोसा सुदुज्जया घोरा । रक्खसि कप्पा उ जरा कूवय- सरिसो भवो भणिओ ॥ अयगर- मुहं च नरगो फणि-सरिसा कोह- माण- मय- लोहा | उंदर - सरिसा पक्खा सिएयरा दो वि नायवा ॥ सरथंभ - समं जीयं वरडी - सरिसाओ विविह-वाहीओ । महुबिंदु - समा भोगा 'वडतरुवर - विन्भमो मुक्खो ॥ विजाहर-संकासो परमगुरू भणइ किमत्थ संसारे ? | अणुवसि दुक्खमउलं मुक्ख सुहे सासए वच्छ ! ॥ एवं भणिय-मित्ता लहुकम्पा उज्झिऊण पावाई | वच्चंति सासय-पयं अवरे महुबिंदु - सरिसेसु ||
२ ह. ज. स्सावहमि । ३ ह. क. ज. वर° ।
१ ज. 'ते ।
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